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'हे स्वामिन्! यदि जीव का एकांत नित्य माने तो कृतनाश और अकृतागम दोष लगता, और यदि आत्मा का एकान्त नित्यत्व मानो तो सुख दुःख का भोग रहता नहीं और एकांत अनित्यत्व माने तो दर्शन में भी संभवित नहीं पुण्य और पाप तथा बंध और मोक्ष जीव को एकांत नित्य मानने वाले दर्शन में संभव नहीं है, वैसे ही एकांत अनित्य मानने वाले दर्शन में भी संभव नहीं है, क्रम अर्थ क्रिया घटित नहीं होती। इसी प्रकार यदि एकान्त क्षणिकत्व माने तो भी अर्थ क्रिया घटित नहीं होती। इसलिए हे भगवन्! यदि आपके कथनानुसार वस्तु का नित्यानित्यत्व स्वरूप हो तो वह यथार्थ है, उसमें कोई दोष नहीं लगता। गुड़ से कफ उत्पन्न होता है, तो सुंठ पित्त को उत्पन्न करती है परंतु ये इन दोनों का मिश्रण औषधि में हो तो कुछ भी दोष उत्पन्न नहीं होता। फिर असत् प्रमाण की प्रसिद्धि द्वार दो विरुद्ध भाव एक एक स्थान पर न हो, यह कहना भी मिथ्या है, कारण कि रंगबिरंगी वस्तु में विरुद्ध वर्ण का योग नजर से देखा जाता है। विज्ञान का एक आकार विविध आकार के समुदाय से हुआ है, इस प्रकार माने तो त्राज्ञ ऐसा बौद्ध अनेकांत मत को तोड़ सकता नहीं है। एक और अनेक रूप प्रमाण विचित्र रीति से है, ऐसे कहने से वैशेषिक विरुद्ध गुणों से गूंथी हुई आत्मा के मानने से सांख्य मत वाले भी अनेकान्त मत को तोड़ सकता नहीं है। एवं चार्वाक की विमति और संमति मिलने की तो जरूरत ही नहीं है, क्योंकि उसकी बुद्धि तो परलोक, आत्मा
और मोक्ष के संबंध में मूढ ही हो गई है। इसलिए हे स्वामिन! आपके कथनानुसार उत्पाद, व्यय और ध्रुवरूप गोरस आदि से जिस प्रकार सिद्ध हुई वस्तु वस्तु रूप हुई है, यह सर्व प्रकार से मान्य हैं।"
(गा. 309 से 325) इस प्रकार स्तुति करके पुनः प्रभु नमन करके अभयकुमार ने पूछा कि 'हे स्वामिन्! अंतिम राजर्षि कौन होगा? प्रभु ने फरमाया कि ‘उदायन राजा अभयकुमार ने पुनः पूछा, हे प्रभु! वे उदायन राजा कौन हैं ? तब प्रभु ने उदायन राजा का चरित्र इस प्रकार कह सुनाया
(गा. 326) सिंधु सौवीर देश में वीतभय नामक नगर है, उस नगर में उदायन नामक राजा था, वह वीतभय आदि तीन सौ त्रेसठ नगर का और सिंधु सौवीर आदि
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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