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भले ऐसे हो, कल प्रातः काल में पुनः मैं तुमको आमंत्रित करूंगा।' ऐसा सोचकर अभयकुमार उनको विदा करके चैत्यवंदन करके अपने घर गये।
(गा. 141 से 159) दूसरे दिन प्रातः काल में अभयकुमार ने उन को निमंत्रण दिया और गृहचैत्य के दर्शन वंदन करवा कर उनको प्रचुर वस्त्र आदि दिये। किसी समय उस कपट श्राविका ने अभय कुमार को निमन्त्रण दिया। इसलिए वह नम्र होकर उसके (निवास) उतारे पर गया। “वैसे सज्जन साधर्मिक बंधु के आग्रह से क्या न करे?'' उसने विविध प्रकार के खाद्य पदार्थों से अभयकुमार को भोजन कराया एवं चंद्रहास सुरा से मिश्रित जल का पान कराया। उसके प्रभाव से भोजन के पश्चात् वह तुरन्त सो गया। ‘मद्यपान की प्रथम सहचरी निद्रा ही है। पश्चात् स्थान स्थान पर संकेत करके रखे रथों द्वारा उस दुर्लभ कपट वाली वेश्या ने अभयकुमार को उज्जयिनी नगरी में पहुंचा दिया। इधर उसके बाद श्रेणिकराजा ने तुरन्त ही अभय की शोध के लिए स्थान स्थान पर अपने आदमी भेजे। उन्होंने ढूँढते ढूँढते उस कपटी श्राविका के पास जाकर पूछा कि 'यहाँ अभयकुमार आए थे ?' वह बोली कि 'हाँ' यहाँ आए थे सही, परंतु वे तत्काल ही यहाँ से वापिस लौट गये। उसके वचनों पर विश्वास करके वे लोग अन्यत्र शोध करने लगे। तब वह कपटी श्राविका स्थान स्थान पर अश्वों द्वारा अवंती आ पहुँची। उस प्रचंड रमणी ने अभयकुमार को चंडप्रद्योत को सौंप दिया
और अभयकुमार को किस उपाय के द्वारा वह यहाँ ले आई, उस उपाय का स्वरूप भी कह बताया। तब प्रद्योत ने कहा कि 'तू इस धर्म के विश्वासी अभयकुमार को धर्म के कपट से पकड़ कर ले आई, यह ठीक नहीं किया। पश्चात् राजा ने अभयकुमार को कहा कि ‘सत्तर बातों के कहने वाले तुम्हारे समान नीतिज्ञ पुरुष को भी शुक पक्षी को मार्जरी पकड़ लावे, वैसे ही यह स्त्री पकड़ कर ले आई। अभयकुमार ने कहा कि, 'तुम ही एक इस जगत में बुद्धिमान हो कि जिनकी ऐसी बुद्धि से राजधर्म वृद्धि पाता है। यह सुनकर चंडप्रद्योत शर्मा गया, साथ ही कोपायमान हुआ, जिससे उसने अभयकुमार को राजहंस के समान काष्ट के पिंजरे में डाल दिया।
(गा. 160 से 172) प्रद्योत राजा के राज्य में अग्नि भीरु रथ, शिवादेवी रानी, अनलगिरि हाथी और लोह जंघ नाम का लेख ले जाने वाले दूत ये चार रत्न थे। राजा बार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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