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की सेवा की है। इस प्रकार पूर्व जन्म में मैंने सुकृत्य किये हैं। पश्चात् वह दंडधारी बोला कि, 'अब जो दुष्कृत्य किया हो, वह भी बताओ। रेहिणेय बोला कि, 'साधु के संसर्ग से मैंने कोई भी दुष्टकृत्य तो किया ही नहीं है।' प्रतिहार पुनः बोला कि, 'एक समान स्वभाव से संपूर्ण जीवन व्यतीत होता नहीं, 'इसलिए जो कोई चोरी जारी आदि जो कुछ दुष्कृत्य किया हो तो वह भी कहो।' तब रोहिणेय बोला कि, 'जो इस प्रकार के दुष्कृत्य करता हो तो क्या वह स्वर्ग को प्राप्त कर सकता है? क्या अंध मनुष्य पर्वत पर चढ़ सकता है?
(गा. 73 से 79) पश्चात् छड़ीदार ने सर्व वृत्तांत अभयकुमार को निवेदन किया एवं अभयकुमार ने श्रेणिक महाराज ने कहा, “इतने उपायों से भी जिसे चोर के रूप से पकड़ा नहीं जा सका, तो उस चोर को छोड देना चाहिए। क्योंकि नीति का उल्लंघन करना योग्य नहीं है। राजा के कथनानुसार अभय कुमार ने चोर को छोड़ दिया। 'किसी समय वंचना करने में चतुर पुरुषों से होशियार पुरुष भी ठगे है जाते हैं।
(गा. 80 से 82) वहाँ से छूट जाने के पश्चात् रोहिणेय ने विचार किया कि, मेरे पिता की आज्ञा को भी धिक्कार है कि जिससे भगवन्त के वचनामृत से आज दिन तक मैं निर्भागी रहा। यह भी प्रभु का वचन यदि मेरे कान में नहीं आया होता तो मैं अब तक तो विविध प्रकार की यातनाओं को भोगकर यमराज के द्वार पर पहुँचा गया होता। उस समय तो अनिच्छा से मैंने भगवान के वचन ग्रहण किये थे, फिर भी वह रोगी के लिए औषधि के समान मेरे लिए भी जीवन रूप हो गया। अर्हन्त के वचन का त्याग करके आज तक मैंने चोर की वाणी में प्रीति की। यह तो कौवे के समान आम्रफल को छोड़कर नीम के फल की प्रीति करने के समान मैंने किया। मुझे धिक्कार हो। जिनके उपदेश के एक लेश ने भी इतना फल दिया तो, यदि मैंने सर्व उपदेश सुना होता तो क्या फल नहीं मिलता?" मन में इस प्रकार का विचार करके वह शीघ्र ही भगवान् के पास गया और प्रभु के चरणों में प्रणाम करके उसने इस प्रकार विज्ञप्ति की
(गा. 83 से 90) “हे नाथ! घोर विपत्ति रूपी अनेक मगरमच्छों से आकुल व्याकुल इस संसार सागर में जन मानस में प्रसरती आपकी देशना की वाणी नौका के
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)