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एकादश सर्ग
रोहिणेय का चरित्र, अभयकुमार का अपहरण उदायन का वृत्तांत, प्रद्योत का बंधन एवं उदायन की दीक्षा
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श्री वीर भगवान् लागों पर अनुग्रह करने की इच्छा से नगर गाँव खान और द्रोणमुख (किसान लोगों के गांव) आदि में विचरण करते थे । उस समय राजगृही नगरी के पास वैभारगगिरि की गुफा में मानो मूर्तिमान् रौद्ररस हो ऐसा लोहखुर नामक एक चोर रहता था। जब राजगृही नगरी में लोग उत्सवादिक में मग्न होते, तब वह चोर छिद्र, देखकर पिशाच की तरह उपद्रव करता था । वह द्रव्य ले आता और परस्त्रियों को भोगता था । उस नगर के सब भंडार व महल वह अपना ही मानता था । उसे चोरी करने की वृत्ति में ही प्रीति थी, अन्य में न थी । राक्षसगण मांस के बिना अन्य भक्ष्य से तृप्त नहीं होते।” उसके रोहिणी नाम की स्त्री से आकृति और चेष्टा में उसके जैसा ही रोहिणेय नाम का पुत्र हुआ। जब लोहखुर चोर की मृत्यु का समय नजदीक आया, तब उसने रौहिणेय को बुलाकर कहा कि, 'हे पुत्र ! यदि तू मेरे कहे अनुसार ही करे तो मैं तुझे कुछ आवश्यक उपदेश दूँ।' वह बोला कि 'आपके वचनों का पालन तो मुझे अवश्यमेव करना ही चाहिए। पृथ्वी में पिता की आज्ञा को कौन नहीं उठाता है ?' पुत्र के इन वचनों से लोहखुर अत्यन्त हर्षित हुआ और पुत्र के पीठ पर हाथ फिराता हुआ इस प्रकार के निष्ठुर वचन बोला कि - " जो यह देवताओं के द्वारा रचित समवसरण में बैठकर महावीर नामका योगी देशना देता है, उसके भाषण को तू कभी भी नहीं सुनेगा, बाकी अन्य ठिकाने पर तू स्वेच्छा से वर्तन करना।" ऐसा उपदेश देकर लोहखुर ने पंचत्व को प्राप्त किया ।
(गा. 1 से 9 )
पिता की मृतक्रिया करने के पश्चात् रोहिणिया भी मानो दूसरा लोहखुर हो उस प्रकार निरंतर चोरी करने लगा। अपने जीवितव्य के समान पिता की
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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