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उसे कहा कि, 'अरे मृगावती! तुम्हारे जैसी कुलीन स्त्री को रात्रि में अकेले बाहर रहना क्या शोभा देता है ? ये वचन श्रवण कर वह चंदना जी को बारम्बार खमाने लगी। ऐसे करते करते शुभ भावों के द्वारा घाती कर्मों के क्षय से मृगावती को केवलज्ञान उत्पन्न हो गया। उसी समय निद्राधीन हुई चंदना के पार्श्व से सर्प जा रहा था, उसे केवलज्ञान की शक्ति से दृष्टिगोचर होने पर मृगावती ने उनका हाथ संथारे से ऊंचा कर दिया। फलस्वरूप चंदना जी जागृत हो गई और उन्होंने पूछा कि 'मेरा हाथ क्यों उठाया ? मृगावती बोली- 'यहाँ से एक विशाल विषधर जा रहा था। चंदना से पुनः पूछा कि, अरे मृगावती! ऐसे सई बिंधे जैसे गाढ़ अंधकार में तुमको सर्प किस प्रकार दिखाई दिया? मुझे इससे विस्मय होता है।' मृगावती ने कहा- 'हे भगवती! मैंने उत्पन्न हुए केवलज्ञान रूपी चक्षु से उसे देखा। यह सुनते ही अरे! केवलज्ञानी की आशातना करने वाली मुझे धिक्कार हो, इस प्रकार अपनी आत्मा की निंदा करते हुए चंदना को भी केवलज्ञान उत्पन्न हुआ।
(गा. 334 से 349) __ इसी समय गौतम स्वामी ने प्रभु को पूछा कि, 'स्वामी! जो स्थिर पदार्थ है, वे क्या कभी अपने स्वभाव से चलित होते होंगे? जैसे कि सूर्य, चन्द्र के विमान चलित होकर यहाँ आये? प्रभु के कहा कि “इस अवसर्पिणी में दस आश्चर्य हुए हैं। वे इस प्रकार हैं- अरिहंत को केवलज्ञान होने के पश्चात् उपसर्ग, गर्भ में से हरण, सूर्यचंद्र के विमान का अवतरण, चमरेन्द्र का उत्पात, अभावी परिषद्, एक समय में उत्कृष्ट अवगाहना वाले एक सौ और आठ सिद्ध, घातकी खंड की अपरकंका में कृष्ण का गमन, असंयमी की पूजा, स्त्री तीर्थंकर एवं हरिवंशकुल की उत्पत्ति इन दस आश्चर्यों के अन्तर्गत सूर्य-चंद्र के विमान का अवतरण भी आश्चर्यभूत ही हुआ है। इस प्रकार कहकर विहार करके प्रभु श्रावस्तीनगरी में पधारे। वहाँ नगर के बाहर कोष्टक नामक उद्यान में समवसरे।
(गा. 350 से 354) वहाँ तेजोलेश्या के बल से विरोध का नाशक अष्टांग निमित्त के ज्ञान से लोगों के मन की बात का कथक एवं जिन नहीं होने पर भी जिन नामक का धारक, गोशाला पहले से आया हुआ था। वह हालाहला नामकी किसी कुंभकारी की दुकान में उतरा हुआ था। उसकी ‘अर्हत्' के रूप में ख्याति सुनकर मुग्ध
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)