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आर्द्रककुमार वहाँ जा सका नहीं। इससे भाद्रपद के मेघ के तुल्य नेत्र में से अश्रान्त अश्रु वर्षा करता हुआ और रो रो कर जिसके नेत्र सूज गये हैं, ऐसा वह आर्द्रकुमार अभयकुमार को मिलने जाने में उत्कंठित बना रहा। बैठते, सोते, चलते, फिरते, खाते-पीते अन्य सब क्रियाओं में वह अभयकुमार से अलंकृत उस दिशा को ही अपनी दृष्टि के समक्ष रखता था। अभयकुमार के पास कपोत के जैसे उड़कर पहुँचने का इच्छुक उस आर्द्रकुमार को रोगपीड़ित, दीन जन की तरह उसे किंचित्मात्र भी शांति नहीं मिल रही थी। वह हमेशा मगधदेश कैसा है ? राजगृह नगर कैसा होगा? वहाँ जाने का कौनसा मार्ग है ? इस प्रकार अपने परिजनों को पूछता रहता था।
___(गा. 237 से 245) आर्द्रककुमार की ऐसी अवस्था को सुनकर के आईकराजा को चिंता हुई कि, 'अवश्य ही यह आर्द्रकुमार किसी समय मुझे कहे बिना ही अभयकुमार के पास चला जाएगा, इसलिए इसका बंदोबस्त कर देना चाहिये।' ऐसा विचार करके उन्होंने अपने पाँचसौ सामंतो को आदेश दिया कि, 'तुमको आर्द्रककुमार को किसी भी प्रकार देशांतर जाने न देना।' राजा की आज्ञा से वे सामंत भी छाया की भांति उसका पार्थ भी छोड़ते नहीं थे।' निरंतर साथ ही रहते थे, इससे कुमार अपनी आत्मा को बंदीवान् सदृश समझने लगा। अंत में अभयकुमार के पास जाने का मन में निर्णय करके वह बुद्धिमान कुमार प्रतिदिन अश्व क्रीड़ा करने लगा। उस समय वे सामंत भी उसके अंगरक्षक होकर उसके साथ रहने लगे। आर्द्रककुमार त्वरितगति से अश्व दौड़ा उनसे दूर चला जाता एवं पुनः लौटकर आ जाता।
(गा. 246 से 250) इस प्रकार की क्रीड़ा करता हुआ वह अधिक अधिक दूर जाने लगा एवं पुनः लौटकर आने लगा। इससे उन सामंतों को उसके गमनागमन पर विश्वास उत्पन्न हो गया। ऐसा करते करते एक दिन आर्द्रककुमार ने अपने विश्वासु व्यक्तियों के पास समुद्र में एक जहाज तैयार करवाया। उस जहाज को रत्नों से भरवा दिया और आदिनाथ प्रभु की प्रतिमा भी उसमें भिजवा दी। पश्चात् अश्चक्रीड़ा करते करते अदृश्य होकर उस जहाज पर चढ़कर आर्द्रककुमार आर्यदेश में आ गया। वहाँ पर पहुँचते ही सर्वप्रथम अभयकुमार
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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