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सुन्दर भृकुटि वाली स्त्री मेरा प्रयास व्यर्थ नहीं गया, तू सुज्येष्ठा से कोई न्यून नहीं है।' चेल्लणा पति के लाभ से और बहन की ठगाई से एक साथ हर्ष और शोक से लिप्त हो गई। राजा श्रेणिक पवन जैसे वेगवान् रथ द्वारा शीघ्र ही अपने नगर में आए। यह समाचार सुन कर अभयकुमार भी शीघ्र ही उनके पास आया। श्रेणिक राजा ने गांधर्व विधि से चेल्लणा का पाणिग्रहण किया।
(गा. 267 से 271) पश्चात् राजा ने नाग और सुलसा के पास जाकर उनके पुत्रों की मृत्यु के समाचार दिये। वे दंपत्ती राजा से पुत्रों का अमंगल सुनकर मुक्तकंठ से रुदन करते हुए विलाप करने लगे। अरे कृतांत! वास्तव में तू कृतांत ही है। तूने हमारे पुत्रों का एक साथ नाश क्यों किया? क्या वे सर्व एक साथ तुम्हारी सांकल में आ गये ? पक्षियों के बहुत बच्चे होते हैं, परंतु उनकी अनुक्रम से मृत्यु होती है। कभी भी एक साथ नहीं मरते अथवा क्या परस्पर स्नेह के कारण वे सभी एक साथ मर गये? अथवा क्या हम दोनों को निःस्नेह जाना कि जिससे मृत्यु ने उनको हमारे पास से ठग लिया? इस प्रकार तारस्वर से रुदन करते हुए उनको श्रेणिक राजा के साथ आए अभयकुमार तत्त्ववेत्ता आचार्य की भांति, बोध करने लगे कि अरे महाशयों! जन्मधारी प्राणियों की मृत्यु तो प्रकृति है और जीवित विकृति है तो स्वभाव सिद्ध ऐसे बनाव में आपके जैसे विवेकी को खेद करना योग्य नहीं। इस प्रकार अभयकुमार ने उन दंपती को समझाया। फिर योग्य वचन कहकर श्रेणिक राजा अभयकुमार सहित राजमहल में आये।
(गा. 272 से 279) मगधपति श्रेणिक, इंद्राणी के साथ इंद के तुल्य चेल्लणादेवी के साथ निर्विघ्न रूप से भोग भोगने लगे। वह औष्ट्रिका व्रत करनेवाला सेनक तापस जो व्यंतर हुआ था, वह व्यंतर आयुष्य पूर्ण करके, चेल्लणा की कुक्षि में पुत्ररूप से अवतीर्ण हुआ। उस गर्भ के दोष से चेल्लणा को पति का मांस खाने का दोहद उत्पन्न हुआ कि जो राक्षसी को भी नहीं होता। पतिभक्ति के कारण चेल्लणा उस दोहद के विषय में किसी को भी कह नहीं सकी। दोहद पूर्ण न होने से वह दिन के चंद्र तुल्य ग्लानि पाने लगी। ऐसे दुर्दोहद से गर्भ से विरक्त हुई चेलना पाप का अंगीकार करके उस गर्भ को गिराने का प्रयास करने लगी, परंतु वह गिरा भी नहीं। जल से रहित लता के समान चेलना को शरीर से अत्यन्त शुष्क हुई
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)