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इसी समय अपापा नगरी में सोमिल नामके एक धनाढ्य ब्राह्मण ने यज्ञकर्म में विचक्षण ऐसे ग्यारह द्विजों को यज्ञ करने हेतु बुलाए थे। उस समय वहाँ समवसरे श्री वीरप्रभु को वन्दनार्थ आते देवताओं को देखकर गौतम ने अन्य ब्राह्मणों को कहा कि, 'इस यज्ञ का प्रभाव तो देखो! अपने मंत्रों से अभिमंत्रित ये देवता प्रत्यक्ष होकर यहाँ यज्ञ में आ रहे हैं । उस समय चंडालगृह की भांति यज्ञ का वाडा छोड़कर देवताओं को समवसरण में जाते देखकर लोग कहने लगे - 'हे नगरजनों अतिशय सहित उद्यान में सर्वज्ञ प्रभु समवसरे हैं, उनको वंदन करने के लिए ये देवगण हर्ष से वहाँ जा रहे हैं ।' सर्वज्ञ ये शब्द सुनते ही किसी ने आक्रोश किया हो वैसे इंद्रभूति कुपित होकर अपने स्वजनों से बोले- अरे धिक्कार! धिक्कार मरुदेश के मनुष्य जैसे आम को छोड़कर कैर के पास जाते हैं, वैसे ही ये लोग मुझे छोड़कर इस पाखंडी के पास जा रहे हैं। क्या मेरे अतिरिक्त कोई दूसरा सर्वज्ञ है ? सिंह के समक्ष कोई दूसरा पराक्रमी हो ही नहीं सकता। मनुष्य तो मूर्ख होने से उसके पास जाते हैं तो भले जाएं परंतु देवतागण क्यों जा रहे हैं ? इससे उस पाखंडी का दंभ कोई महान् लगता है। परंतु जैसा यह सर्वज्ञ होगा, वैसे ही देवता भी लगते हैं। क्योंकि जैसे यक्ष होते हैं वैसी ही बलि दी जाती है। अब इन देवताओं और मनुष्यों के देखते हुए उसकी सर्वज्ञता का खंडन कर देता हूँ । इस अहंकार से बोलते हुए गौतम अपने पांच सौ शिष्यों से परिवृत्त होकर जहाँ श्री वीरप्रभु सुरनरों से घिरे हुए थे, वहाँ समवसरण में आए। प्रभु की समृद्धि और तादृश तेज देखकर 'यह क्या ?' इस प्रकार इंद्रभूति आश्चर्य - चकित हो गए। इतने में तो 'हे गौतम! इंद्रभूति ! तुम्हारा स्वागत हैं। इस प्रकार जगद्गुरु ने अमृत जैसी मधुर वाणी से कहा । यह सुनकर गौतम विचाराधीन हो गए 'क्या ये मेरा नाम और गोत्र भी जानते हैं ? अथवा मेरे जैसा जगत्प्रसिद्ध मनुष्य को कौन नहीं जानता ? परंतु यदि मेरे हृदय में स्थित संशय को ये बतावें और अपनी ज्ञानसंपत्ति के द्वारा उसका जो छेदन कर दें, तो वे वास्तव में आश्चर्यकारी है ऐसा मैं मानता हूँ।' इस प्रकार हृदय में विचार कर ही रहे थे कि संशयधारी इंद्रभूति को प्रभु ने कहा कि, 'हे विप्र! जीव है या नहीं? ऐसा तुम्हारे हृदय में संशय है । परंतु हे गौतम! जीव है, वह चित्त चैतन्य, विज्ञान और संज्ञा आदि लक्षणों से ज्ञात किया जा सकता है । यदि जीव न हो तो पुण्य पाप का पात्र कौन है ? और तुमको ये याग, दान आदि करने का निमित्त भी क्या ? इस प्रकार प्रभु के वचन सुनकर उन्होंने मिथ्यात्व
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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