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देवता भी आपके संयोग को चाहते हुए भी उसे प्राप्त नहीं कर सकते, तो योगमुद्रा बिना के अन्यों की तो बात ही क्या करनी ? हे स्वामी! हम आप समान नाथ की शरण को ही अंगीकार करते हैं, आपकी ही उपासना करते हैं। आपके सिवा अन्य कोई त्राता नहीं है, इसलिए कहाँ जाकर कहें और क्या करें? अपने आचार द्वारा ही मलिन एवं दूसरों को ठगने में तत्पर ऐसे अन्य देवों से ही जगत् ठगा जा रहा है। अहो! इसकी पुकार किसके सामने करें नित्यमुक्त कहलाने पर भी इस जगत की उत्पत्ति स्थिति और लय करने में उद्यत होने वाले और इससे ही वंध्या स्त्री के बालक समान देवों का कौन सचेत पुरुष आश्रय करे? हे देव! अन्य कितनेक मूढ़ पुरुष उदर पूर्ति करने वाले एवं विषयेन्द्रिय द्वारा दुराचार करने वाले देवताओं से आपके जैसे देवाधिदेव का निन्हव करते हैं, वह कैसी खेद की बात है ? अहो! कितनेक घर में रहे हुए गर्जना करने वाले मिथ्यात्वी यह सब आकाशपुष्पवत् हैं, ऐसी उत्प्रेक्षा करके
और उसका कुछ प्रमाण कल्पित कर देह और गेह में आनंद मानते रहते हैं। कामराग और स्नेह राग का निवारण करना यह तो सहज बन सकता है, परंतु दृष्टिराग तो इतना पापी है कि जो सत्पुरुषों के द्वारा भी इसका उच्छेद करना। यह मुश्किल होता है। हे नाथ! प्रसन्नमुख, मध्यस्थ दृष्टि और लोक को प्रीति उपजाने वाले वचन ये सर्व आपके अत्यन्त प्रीति के स्थान रूप होने पर भी मूढ़ लोग व्यर्थ ही आपसे उदास रहते हैं। कभी वायु स्थिर हो जाय, पर्वत द्रवित हो जाय, जल जाज्वल्यमान हो जाय, तथापि रागादि द्वारा ग्रसित पुरुष कभी भी आप्त होने योग्य नहीं हैं।' इस प्रकार से स्तुति करके इंद्र ने विराम लिया। पश्चात् प्रभु जी ने सर्वभाषा में समझी जा सके वाणी से निम्न प्रकार से देशना दी।
__ (गा. 26 से 38) __“अहो! यह संसार समुद्र के समान दारुण है, एवं उसका कारण वृक्ष के बीज के समान कर्म ही है। अपने ही कृत कर्म से विवेक रहित हुआ प्राणी कुआ खोदने वाले के समान अधोगति को पाते हैं एवं शुद्ध हृदय वाले पुरुष अपने ही कर्म से महल बांधने वाले की तरह उर्ध्वगति को पाते हैं। कर्म बंध के कारणभूत प्राणियों को हिंसा कभी भी नहीं करना चाहिये। सदैव अपने प्राणों की भांति अन्य के प्राणियों की रक्षा में तत्पर रहना चाहिए। आत्मपीड़ा की तरह पर जीव
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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