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मृगावती की सखी थी । उसी नगर में धनावह नामका एक सेठ रहता था, वह अति धनाढ्य था, उसके गृहकार्य में कुशल मूला नामकी पनि थी । यहाँ वीर प्रभु पधारे उस समय पोष माह की कृष्ण पक्ष की प्रतिपदा ( एकम) थी । उस दिन प्रभु ने अत्यंत अशक्य अभिग्रह धारण किया कि 'कोई सती और सुन्दर राजकुमारी दासत्व को प्राप्त हुई, पैरों में लोहे की बेड़ी डाली हुई हो, मस्तक मंडित हो, भूखी हो, रुदन करती हो, एक पैर देहली (उंबर) पर और दूसरा बाहर रखा हो, सर्व भिक्षुक उसके घर आ चुके हो, वैसी स्त्री सूपड़े ( छाजले) के एक कोने में रहे कुलमाष ( उड़द) यदि मुझे वहरावे तो मैं पारणा करूंगा इसके सिवा नहीं करूंगा। ऐसा अभिग्रह लेकर प्रभु प्रतिदिन भिक्षा के समय उच्च-नीच गृहों में गोचरी के लिए विचरने लगे । परंतु प्रभु के उक्त अभिग्रह होने से कोई भिक्षा दे भी तो प्रभु लेते नहीं थे । नगरजन अत्यन्त शोक करते और अपनी निंदा करते थे। इस प्रकार अशक्य अभिग्रह होने के कारण भिक्षा लिए बिना बावीस परीषह को सहन करते हुए प्रभु ने चार प्रहर की भांति चार महिने निर्गमन किये। एक वक्त प्रभु सुगुप्त मंत्री के घर भिक्षा के लिए पधारे। उसकी स्त्री नंदा ने प्रभु को दूर से ही देखा, तब 'ये महावीर अर्हत् प्रभु सद्भाग्य से मेरे घर पधारे हैं' ऐसा बोलती हुई नंदा आनंदित होती हुई प्रभु के सामने आई एवं उस बुद्धिमान् श्राविका ने कल्पनीय भोज्य सामग्री प्रभु के समक्ष रखी, परंतु अभिग्रह होने से प्रभु कुछ भी लिए बिना चले गये । नंदा का हृदय दुःखी हो गया । और मैं अभागिनी हूँ, मुझे धिक्कार है, मेरा मनोरथ पूर्ण नहीं हुआ, इस प्रकार शोक करने लगी। इस प्रकार खेद करती हुई नंदा को उसकी दासी ने कहा कि, 'हे भद्रे ! ये देवार्य प्रतिदिन इसी प्रकार भिक्षा लिए बिना ही चले जाते हैं । आज ही कोई ऐसा नहीं बना है। यह बात सुनकर नंदा ने विचार किया कि 'प्रभु ने कोई अपूर्व अभिग्रह धारण किया लगता है, इससे प्रासुक अन्न भी प्रभु ग्रहण कर रहे नहीं हैं । अब किसी भी रीति से प्रभु का अभिग्रह ज्ञात कर लेना चाहिये। ऐसी चिंतामग्न होकर आनंद रहित होकर बैठी थी, इतने में सुगुप्त मंत्री घर आए, उन्होंने उसे चिंता करते हुए देखा । सुगुप्त ने कहा, 'प्रिये ! उद्विग्न चित्त वाली कैसे दिखाई दे रही हो ? क्या किसी ने तुम्हारी आज्ञा खंडित की है ? अथवा मैंने कोई तुम्हारा अपराध किया है ?, 'नंदा बोली- 'स्वामी! किसी ने भी मेरी आज्ञा खंडित नहीं की है, न ही आपका कोई अपराध हैं । परंतु मैं श्री वीरप्रभु को पारणा न करवा सकी, इसका मुझे अत्यंत खेद है । भगवान् नित्य
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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