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देवताओं ने पुनः कहा कि “हे स्वामिन्! यह सौधर्माधिपति पूर्व भव में उपार्जित किये हुए पुण्य से देवाधिपति हुआ है और उनकी समृद्धि और पराक्रम आपसे बहुत अधिक है। आप आपके पुण्य के अनुसार हमारे स्वामी हुए हो। इससे पुण्य के आधीन ऐसे वैभव में आपको ईर्ष्या नहीं करनी चाहिए। फिर भी यदि आप उनके प्रति आपका कुछ भी पराक्रम बताना प्रारंभ करेंगे तो, मेघ के समाने होने वाले अष्टापद पशु की तरह वह आपके हास्य और अधःपतन के लिए होगी। अतः आप शांत हो जाएँ। सुखपूर्वक रहकर यथेच्छ सुख-भोग करो एवं हमारी सेवा से विविध विनोद का अवलोकन किया करो। तब चमरेन्द्र बोला कि, –“अरे! यदि तुम उससे डरते हो तो तुम सुख से यहीं रहो, मैं एकाकी ही उससे युद्ध करने जाऊंगा। असुरों का वह या मैं एक ही इंद्र होना चाहिये। एक म्यान में दो तलवार नहीं रह सकती। इससे प्रकार कहकर उग्र गर्जना करके आकाश मार्ग में उड़ने की इच्छा करते हुए उसे एक विवेक आया, तो वह पुनः इस प्रकार चिंतन करने लगा कि- "ये मेरे सामानिक देव शक्रेन्द्र को जैसा शक्तिवान मान्य करते हैं, वैसा यदि वह हो तो हो, क्योंकि ये देवता लेशमात्र भी मेरा अहित चाहते नहीं है, और फिर कार्य की गति विषम होती है। दैवयोग से यदि मेरी पराजय हो जाय तो फिर इससे भी अधिक पराक्रम वाले किसकी शरण में मुझे जाना? इस प्रकार विचार करके उसने अवधिज्ञान के उपयोग से ज्ञात किया, तो सुसुमारपुर में श्री वीरप्रभु को प्रतिमाधारण किये हुए देखा। तब वह वीरप्रभु की शरण लेने का निश्चय करके खड़ा हुआ व तुंबालय नामक अपनी आयुधशाला में गया। वहाँ से मानो मृत्यु का दूसरा हाथ हो वैसा एक मुद्गर उसने उठाया एवं ऊंचा नीचा एवं आडा उसे दो तीन बार फिराया। तब असुर स्त्रियाँ उन्हें शूरवीर जाने इस कामना से कौतुक देखते हुए भुवनपति देवों द्वारा उत्साहित किया हुआ और सामानिक देवताओं को ‘अज्ञ है' ऐसा जानकर उपेक्षित करता हुआ वह चमरासुर चमरचंचा नगरी से निकला।
(गा. 374 से 407) क्षणभर में श्री वीरप्रभु के समीप आकर, परिद्य आयुध को दूर रखकर तीन प्रदक्षिणा देकर, नमन करके इस प्रकार बोला “हे भगवान्! मैं आपके प्रभाव से अति दुर्जय शक्रेन्द्र को जीत लूंगा, कारण कि वह इंद्र मेरे मस्तक पर
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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