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पारणा करने के पश्चात् प्रभु ने अन्यत्र विहार किया। उस उद्यान में श्री पार्श्वनाथ भगवंत के एक केवली शिष्य पधारे। तब राजा और लोगों ने उनके पास आकर पूछा कि, 'भगवन्! इस नगरी में महान् पुण्य उपार्जन करने वाला कौन है ? केवली भगवंत ने फरमाया कि- जीर्णश्रेष्ठी सर्वाधिक पुण्यवान है। लोगों ने पूछा कि जीर्ण श्रेष्ठी ने महान् पुण्य किस प्रकार उपार्जन किया ? क्योंकि उसने कोई प्रभु को पारणा तो कराया नहीं, यह कार्य करनेवाला तो नवीन सेठ है। साथ ही वसुधारा वृष्टि भी नवीन सेठ के यहाँ हुई है, तो यह नवीन सेठ महापुण्य उपार्जन करने वाला क्यों नहीं है ? केवली भगवंत ने फरमाया- 'भाव से तो जीर्ण श्रेष्ठी जिनदत्त ने अर्हन्त प्रभु को पारणा कराया है। उसने उस भाव से अच्युत देवलोक में जन्म उपार्जन करके संसार को तोड़ दिया है। यदि उसी भावों में उसने दुंदुभी की ध्वनि न सुनी होती तो ध्यानान्तर में उसने केवलज्ञान भी प्राप्त कर लिया होता। यह नवीन श्रेष्ठी तो शुद्ध भाव से रहित है। इसने तो मात्र अर्हन्त प्रभु के पारणे का, वसुधारा रूप इस लोक संबंधी फल ही प्राप्त किया है। इस प्रकार भक्तिपूर्वक और भक्ति रहित अर्हन्त प्रभु के पारणे का फल सुनकर सब लोग विस्मित होते हुए स्वस्थान गये। इधर वीरभगवंत नगर, गाँव, खाण ओर द्रोणमुख आदि स्थानों में विहार करते हुए सुसुमारपुर में पधारे। वहाँ अशोकखंड नाम के उद्यान में अशोक वृक्ष के नीचे एक शिलातल पर रहकर अट्ठम तप करके प्रभु ने एक रात्रि की प्रतिमा धारणा की।
(गा. 364 से 373) इसी अरसे में जो बनाव बना वह इस प्रकार है- इस भरतक्षेत्र में विंध्याचल की तलेटी में बसे विभेल नाम के गांव में पूरण नामका एक गृहस्थ रहता था। एक बार अर्ध रात्रि में उठकर उसने सोचा कि “मैंने पूर्व भव में कोई बड़ा तप किया होगा कि जिसके फलस्वरूप मुझे इस भव में इस प्रकार की लक्ष्मी एवं ऐसी मान्यता प्राप्त हुई। पूर्वकृत शुभाशुभ कर्म का फल इस लोक में प्राप्त होता है, वैसे ही लोक में सेव्य और सेवक पन का अनुमान होता है। तो अब गृहवास छोड़कर, स्वजनों को समझाकर, आगामी भव में फल प्राप्त करने के लिए मैं बड़ा तपचरण करूं। कहा भी है कि “आठ महिने तक ऐसा कार्य करना, कि जिससे चौमासे के चार महिने सुख पूर्वक सोया जाय। पूर्व वय में ऐसा कार्य करना कि जिससे वृद्ध वय में सुख से रहा जाय और इस जिंदगी में
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (दशम पर्व)
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