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की सर्व सामग्री लेकर कार्तिक स्वामी की पूजा करने के लिए जाने लगे । कार्तिक स्वामी की प्रतिमा को स्नान अर्चन करके विधिपूर्वक रथ में बैठाने के लिए तैयार होने लगे। उस समय देवलोक में शक्रेन्द्र ने विचार किया कि 'इस समय वीरप्रभु कहाँ विचरण कर रहे होगे ? अवधिज्ञान से देखा तो वीरप्रभु को और नगरजनों की स्थिति को देखा। तब 'अरे ये अविवेकी नगरजन प्रभु का उल्लंघन करके कार्तिक की पूजा क्यों कर रहे हैं ? ऐसी ईर्ष्या करके इंद्र शीघ्र ही वहाँ आया और कर्तिक की प्रतिमा में प्रवेश किया । पश्चात् यंत्रमय पुतली की तरह वह प्रतिमा जहाँ भगवंत प्रतिमा धारण करके रहे थे उस ओर चल दी। परंतु नगरजन तो उसे चलती हुई देखकर कहने लगे, 'अहो ! ये कार्तिक कुमार स्वयमेव चलकर रथ में बैठेगे।' इतने में तो वह प्रतिमा प्रभु के पास आई और प्रभु को तीन प्रदक्षिणा देकर प्रणाम किया। फिर प्रभु की उपासना करने के लिए वह पृथ्वी पर बैठी। तब 'ये अपने इष्टदेव को भी पूज्य हैं, इससे अपन ने इसका उल्लंघन किया, यह योग्य नहीं किया। इस प्रकार कहते हुए नगरजनों ने विस्मय और आनंद से प्रभु की महिमा की ।
(गा. 328 से 337 )
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वहाँ से विहार करके प्रभु कौशांबी नगरी में आए। वहाँ प्रतिमा धारण करके स्थित प्रभु को सूर्य चंद्र ने मूल विमान के साथ आकर भक्ति से सुख पृच्छा पूछ कर वंदना की । वहाँ से अनुक्रम से विहार करके प्रभु वाराणसी नगरी में आए। वहाँ शक्रेन्द्र ने आकर हर्ष से प्रभु को वंदना की । वहाँ से राजगृही नगरी आकर प्रभु प्रतिमा धारण करके रहे। वहाँ ईशानेन्द्र ने आकर भक्ति से सुखपृच्छा पूर्वक वंदना की । वहाँ से प्रभु मिथिलापुरी पधारे। वहाँ जनकराजा और धरणेन्द्र ने आकर प्रियप्रश्नपूर्वक पूजा की । वहाँ से विहार करके प्रभु विशाला नगरी में गये । वहाँ प्रभु ने दीक्षा के पश्चात् ग्यारहवाँ चौमासा किया। वहाँ समर नामक उद्यान में बलदेव के मंदिर में प्रभु ने चार मासक्षमण अंगीकार करके प्रतिमा धारण की। उस समय भूतानंद नामक नागकुमार इंद्र ने आकर प्रभु को वंदना की और प्रभु को केवलज्ञान नजदीक में होने का ज्ञात करवाकर स्वस्थान पर गया ।
(गा. 338 से 346)
विशालापुरी में जिनदत्त नामक एक परम श्रावक रहता था। वह दयालु था और वैभव के क्षय होने से 'जीर्णश्रेष्ठी' ऐसे नाम से प्रख्यात था। किसी समय
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( दशम पर्व )
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