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में जाओ, और विश्व पर शासनकर्त्ता उन पार्श्वनाथ स्वामी के शासन को ग्रहण करो। जो उनके शासन को वर्तते हैं, वे इहलोक और परलोक में निर्भय हो जाते हैं ।
(गा. 146 से 155)
मंत्री के इस प्रकार के वचनों को सुनकर यवनराज क्षणभर विचार करके बोले 'हे मंत्री ! आपने मुझे उत्तम बोध दिया, जैसे किसी अंधे को कोई कुएँ में गिरने से बचा ले, वैसे ही जड़बुद्धि वाले मुझे अनर्थ से बचा लिया।' इस प्रकार कहकर यवनराज कंठ में कुल्हाड़ा बांधकर, पार्श्वनाथ से अलंकृत उद्यान में परिवार सहित आया । वहाँ सूर्य के अश्व के सदृश लाखों घोड़ों से ऐरावत हाथी जैसे हजारों भद्र गजेन्द्रों से, देवविमान जैसे अनेक रथों से और खेचर जैसे संख्याबद्ध पायदलों से सुशोभित ऐसा पार्श्वनाथ का सैन्य देखकर यवनराज अत्यन्त विस्मित हो गया । स्थान स्थान पर पार्श्वकुमार के सुभटों से विस्मय और अवज्ञा से दृष्ट वह यवनराज अनुक्रम से प्रभु के प्रासाद के द्वार के समीप आया। इसके पश्चात् छड़ीदार से इजाजद लेकर उसने सभा स्थान में प्रवेश किया। तब उसने दूर से ही सूर्य समप्रभु को नमस्कार किया । प्रभु ने उसके कंठ से कुल्हाड़ा हटवा दिया। तत्पश्चात् वह यवन प्रभु के समक्ष अंजलीबद्ध होकर इस प्रकार बोला- हे स्वामिन्! आपके समक्ष इन्द्र भी आज्ञाकारी होकर रहते हैं, तो अग्नि के सामने तृणतुल्य मैं मनुष्य कीट क्या हूँ ? आपने शिक्षा देने के लिए मेरे पास दूत भेजा, वह मुझ पर महती कृपा की। नहीं तो आपके भृकुटी के भंग मात्र से मैं भस्मीभूत क्यों न हो जाऊँ ? हे स्वामिन्! मैंने आपका अविनय किया, वह भी मेरे लिए तो गुणकारी सिद्ध हुआ है, क्योंकि इससे मुझे तीन जगत् के पवित्रकारी आपश्री के दर्शन हुए। मुझे क्षमा कीजिए ऐसा कहना भी आपके लिए उचित नहीं, क्योंकि आपके हृदय में कोप ही नहीं है, मुझे दण्ड दो ऐसा कहना भी उचित नहीं, क्योंकि आप तो स्वामी हो । इन्द्रों से सेवित ऐसे आपको यदि मैं यह कहूँ कि 'मैं आपका सेवक हूँ, तो यह भी 'अघटित' है, और 'मुझे अभय दो' यह कहना भी योग्य नहीं, कारण कि आप स्वयंमेव
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( नवम पर्व )
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