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नरक की तीव्र वेदना को अनुभव करता हुआ, सुख के एक अंश को भी प्राप्त किये बिना काल व्यतीत करने लगा।
(गा. 149 से 150) इसी जंबूद्वीप के पश्चिम महाविदेह में अलंकार तुल्य सुगंध नाम के विजय में शुभंकरा नामकी विशाल नगरी थी। उस नगरी में अवार्य वीर्यवाला व्रजवीर्य नामके राजा का शासन था। उस समय वह इंद्र के तुल्य सर्व राजाओं में श्रेष्ठ था। उसके मूर्तिमान् लक्षमी हो वैसी लक्ष्मीवती नाम की पृथ्वीमंडन रूप अग्रमहिषी थी। किरणवेग का जीव देव संबंधी आयुष्य पूर्ण करके अच्युत देवलोक से च्यवकर सरोवर में हंस समान उस लक्ष्मीदेवी के उदर में अवतरा। पूर्ण समय में पवित्रआकृति धारण करने वाला पृथ्वी में आभूषण स्वरूप पुत्र को जन्म दिया। उसका वज्रनाभ नामांकन किया गया। जगद्रूप कुमुद को चंद्ररूप और धात्रियों से लालित वह कुमार माता-पिता के आनंद में वृद्धि करने लगा। अनुक्रम से यौवनावास्था को प्राप्तकर शस्त्रशास्त्र में विचक्षण हुआ। पिता ने शुभ दिन में उसका राज्यभिषेक किया। तत्पश्चात् वज्रवीर्य राजा ने लक्ष्मीवती रानी के साथ व्रत ग्रहण किया। वज्रनाभ पिता प्रदत्त राज्य का सुचारु रूप से पालन करने लगा। कितनाक काल व्यतीत होने पर वज्रनाभ राजा के प्रतिरूप पराक्रमशाली चक्र के आयुधवाला चक्रवर्ती के समान चक्रायुध नामक पुत्र हुआ। धायमाताओं के हस्त रूप कमल में भ्रमर रूप यह कुमार संसार से भयभीत हुआ पिता की दीक्षा लेने की इच्छा के साथ प्रतिदिन बढ़ने लगा। चंद्र की पूर्णकला सम जब वह कुमार यौवनवय को प्राप्त हुआ, तब पिता ने उससे प्रार्थना की कि, हे कुमार! यह राज्यभार तुमको सौंप कर अभी ही मैं मोक्ष के एक साधन रूप दीक्षा अंगीकार करूंगा। तब चक्रायुध ने कहा कि- 'हे पूज्य पिता श्री! बालचापल्य से यदि कभी कोई अपराध हो गया हो तो क्या आप मुझ पर ऐसा अप्रसाद करेंगे?' मुझे आप क्षमा करें और मेरी तरह इस राज्य का पालन भी आप ही करें। अब तक मेरा पालन पोषण किया, अब मुझे इस प्रकार मत छोड़ना, वज्रनाभ ने कहा हे निष्पाप कुमार! तुम्हारा कोई
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्द)