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भोजन का समय होने पर क्षीरसमुद्र तुल्य पानीवाले एक सरोवर के तीर पर सार्थवाह ने पड़ाव डाला। तब कोई काष्ट के लिए, कोई तृण के लिए घूमने लगे एवं कोई रसोई कार्य में जुट गये। इस प्रकार सर्व भिन्न भिन्न कार्यों में व्यस्त हो गये। इसी समय हथिनिओं से घिरा हुआ मरुभूति हाथी वहां आया तथा समुद्र में से मेघ की भांति उस सरोवर के जल का पान करने लगा। तत्पश्चात् अपनी सूंड में जल भरकर उछाल उछाल कर हथिनिओं के साथ चिरकाल तक क्रीड़ा करके वह उस सरोवर की पाल पर आया। वहां दिशाओं का अवलोकन करते हुए उस गजेन्द्र ने समीप में ही उतरा हुआ उस बड़े सार्थ को देखा। तब क्रोध से मुख नेत्र को रक्तवर्णीय करता हुआ, धमधमाता हुआ यमराज के समान उस ओर दौड़ा। सूंड को कुंडलाकार करके, श्रवण को निष्कंप रखकर, गर्जना से दिशाओं को पूरता हुआ वह गजेन्द्र सार्थिकों को मारने लगा। तब जीवनेच्छु सर्व स्त्री-पुरुष अपने अपने ऊंट आदि वाहनों से जीव लेकर भागने लगे। उस समय में वे मुनि अवधिज्ञान द्वारा उस हाथी का बोध समय जानकर उसके सन्मुख कायोत्सर्ग करके स्थिर खड़े हो गए। उनको देखकर क्रोधित होकर वह हाथी उनकी तरफ दौड़ा। परंतु उनके समीप आते ही उनके तप के प्रभाव से उसका क्रोध शांत हो गया। इससे तत्काल संवेग और अनुकंपा उत्पन्न होने से उनके सन्मुख नवीन शिक्षाणीय शिष्य के तुल्य दयापात्र होकर स्थिर खड़ा हो गया।
(गा. 77 से 86) तब उस पर उपकारक होकर मुनि ने कायोत्सर्ग पारा और शांत, साथ ही गंभीर वाणी से उसे सद्बोध देना प्रारंभ किया- “अरे भद्र! तू तेरे मरुभूति के भव को क्यों याद नहीं करता? और मैं वह अरविंद राजा ही हूँ, वह क्यों पहचानता नहीं है ? उस भव में स्वीकृत आहेत् धर्म को तूने क्यों छोड़ दिया? अब तू सर्व का स्मरण कर और श्वापद जाति के मोह का त्याग कर।' मुनि की इस प्रकार की वाणी को श्रवण करते ही उस . गजेन्द्र को भी जातिस्मरण ज्ञान उत्पन्न हुआ। इससे उसने उन मुनि को मस्तक झुकाकर प्रणाम किया। मुनि श्री ने पुनः कहा कि “हे भद्र! इस नाटक
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)