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अरविंद नृपति के समान ही जीवाजीवादि तत्व का ज्ञाता परम श्रावक विश्वभूति नामका पुरोहित था। उसके अनुद्धरा नामकी स्त्री थी। उसके उदर से कमठ और मरूभूति नाम के दो ज्येष्ठ और कनिष्ठ पुत्र हुए। कमठ के वरूणा और मरुभूति के वसुंधरा नाम की स्त्रियां थीं। वे दोनों रूप लावण्य से अलंकृत थीं। दोनों ही पुत्र कलाभ्यास करके द्रव्य उपार्जन करने में समर्थ हुए और परस्पर स्नेहाभिभूत होने से उनके माता पिता को भी आनंद के कारणभूत हुए।
(गा. 10 से 13) किसी समय दो वृषभ रथ का भार ढोएँ वैसे उनको गृहभार सौंपकर विश्वभूति पुरोहित ने गुरु के पास अनशन अंगीकार किया। तत्पश्चात् विश्वभूति समाधियुक्त चित्त से पंच परमेष्ठी मंत्र का स्मरण करता हुआ मृत्यु के पश्चात् सौधर्म देवलोक में देव हुआ। पति के वियोगरूपी ज्वर से पीड़ित उसकी पत्नि अनुद्धरा भी शोक और तप के अंग का शोषण करके नवकार मंत्र का स्मरण करती हुई मृत्यु को प्राप्त हुई। दोनों भाईयों ने माता पिता का मृतकार्य किया। अनुक्रम से हरिश्चंद्र मुनि के बोध से दोनों शोकरहित हुए। पश्चात् कमठ ऐसा राजकार्य में संलग्न हुआ कि हमेशा पिता की मृत्यु के पश्चात् ज्येष्ठ पुत्र ही धुरंधर हो जाता है।
__(गा. 14 से 18) लघु भ्राता मरुभूति तो संसार की असारता को जानकर संन्यासी की भांति भोजन से विमुख होवें, वैसे विषय से विमुख हुआ एवं स्वाध्याय तथा पौषध आदि विधि में तत्पर होकर अहोरात्र पौषधागार में ही रहने लगा। वहाँ गुरु के पास सर्व सावध योग की विरति स्वीकार कर, “मैं उनके साथ कब विहार करूँगा? ऐसी भावना सदैव उसकी रहने लगी।'' एकाकी हुआ कमठ तो स्वच्छंदी, प्रमाद रूपी मदिरा से उन्मादी, सदैव मिथ्यात्व से मोहित
और परस्त्री एवं द्यूत में आसक्त हुआ। मरुभूति की स्त्री वसुंधरा नवयौवना होने से जंगम विषवल्ली की भांति सर्वजगत् को मोहाधीन होकर रही। परंतु भावयति हुए “मरुभूति ने तो जल में मरुस्थल की लता के जैसे स्वप्न में
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)