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ऐसे सोचता हुआ वह ब्राह्मण नगर से बाहर निकला। वहाँ जंगल में परिभ्रमण करते हुए किसी एक ग्वाले को कंकर से पीपल के पत्तों को छेद करते हुए देखा। तब यह पुरुष मेरी धारणा को पूरी करे, वैसा है। ऐसा सोचकर मूल्य की तरह सत्कारादि करके उसे अपने वश में कर लिया। फिर उस ब्राह्मण ने उसे कहा, कि सिर पर श्वेत छत्र और चंवर को धारण करके जो पुरुष राजमार्ग पर गजेन्द्र पर बैठ कर जाता हो, उसकी दोनों आंखों को कंकर फेंक कर फोड़ देना। ब्राह्मण की बात को सुनकर ऐसा करना उसने स्वीकार किया क्योंकि पशुपाल लोग पशु की तरह अविचारी काम को करने वाले होते हैं। फिर वह ग्वाला किसी दीवार की ओट में खड़ा हो गया और दो कंकर फेंक कर हाथी पर बैठ कर जाते ब्रह्मदत्त राजा की दोनों आखें फोड़ दी। “विधि की आज्ञा वास्तव में दुर्लंघ्य होती है।" शीघ्र ही पक्षी को जैसे सिंणो पकड़ता है, वैसे ही अंगरक्षकों ने उस ग्वाले को पकड़ लिया। उसे खूब मारा, तब यह दुष्कृत्य कराने वाला कोई ब्राह्मण है यह जाना। यह सुनकर ब्रह्मदत्त राजा बोले कि ब्राह्मण जाति को धिक्कार है! क्योंकि जहाँ वे भोजन करते हैं, वहां ही पात्र को फोड़ डालते हैं। जो अपने अक्षदातार को स्वामी तुल्य मानते हैं, ऐसे धान को देना अच्छा, परन्तु कृतघ्न ब्राह्मण को देना उचित नहीं है। वंचक का, निर्दय का, हिंसक का, जानवर का, मांसभक्षकों का और ब्राह्मणों का जो पोषण करते हैं, उसको पहले दंड देना चाहिए। इस प्रकार अनल्प भाषण करते ब्रह्मदत्त राजा ने उस ब्राह्मण को पुत्र, बंधु, मित्र सहित मच्छर के जैसे मुष्ठि से मरवा डाला। तब दृष्टि से अंध होने के साथ क्रोध से हृदय से भी अंध बने ब्रह्मदत्त ने पुरोहित आदि सब ब्राह्मणों का भी घात करवा दिया। उसके बाद उसने मंत्री को आज्ञा दी कि ब्राह्मणों के नेत्रों को विशाल थाल में भरकर मेरे समक्ष लाओ। राजा का ऐसा भयंकर अध्यवसाय जानकर मंत्री ने श्लेषात्मक (गूंदे) फल द्वारा थाल भर कर उसके समक्ष रखा। ब्रह्मदत्त हाथ द्वारा उसका बारम्बार स्पर्श करता हुआ ब्राह्मणों के नेत्रों का यह थाल मैंने अच्छा भरवाया, ऐसा बोलता हुआ अत्यधिक हर्षित होने लगा। उस थाल का स्पर्श करने में जैसे ब्रह्मदत्त को प्रीति होती थी वैसी अपनी स्त्रीरत्न पुष्पवती को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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