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आया। उस समय वार्ता के प्रसंग से पट्टरानी ने ब्रह्मदत्त को पूछा कि 'जब आपको अश्व हरण करके ले गया, तब मार्ग में आपने क्या नवीन देखा?' तब ब्रह्मदत्त ने पापकारी नागकन्या और गौनस नाग की कथा कह सुनाई। तथा स्वयं ने उस दुराचारी को शिक्षा दी, यह भी कह सुनाया। यह सर्व हकीकत उस नागकुमार ने अंतर्हित रूप से सुनी और इसमें अपनी प्रिया का ही दोष जानकर उसका क्रोध शीघ्र ही शांत हो गया। उस समय ब्रह्मदत्त शरीर चिंता के लिए वासगृह से बाहर निकला। तब कांति से आकाश को प्रकाशित करता हुआ उस नाग को अंतरीक्ष में स्थित देखा। नागकुमार ने गगन में स्थित रहकर ही कहा कि “इस पृथ्वी में दुर्विनीत को शिक्षा करने वाले ब्रह्मदत्त राजा की जय हो।" हे राजन्! 'जिस नागकन्या को आपने मारा था, वह मेरी पत्नी है।' उसने तो मुझे ऐसा कहा था, कि ब्रह्मदत्त ने मुझ पर लुब्ध होकर मुझे मारा। यह सुनकर आपके ऊपर कोपायमान होकर आपको दहन करने की इच्छा से मैं यहाँ आया था। परंतु मैंने अदृश्य रहकर आपके मुख से सर्व चेष्टित सुन लिया है। इससे न्यायवंत ऐसे आप ने व्याभिचारिणी को शिक्षा देकर बहुत उचित किया। उसी के कहे अनुसार मैंने आपका अमंगल सोचा, इसलिए आप मुझे क्षमा करें। ऐसा सुन ब्रह्मदत्त बोला कि हे नागकुमार! इसमें आपका कोई दोष नहीं है। स्त्रियां मायाकपट द्वारा दूसरे को दूषित करके अपना दोष ढक देती है। नागकुमार ने कहा यह सत्य है। स्त्रियाँ वास्तव में मायावी होती हैं। आपके ऐसे न्याय से मैं संतुष्ट हुआ हूँ। अतः “कहो, मैं आपका क्या काम करूँ?" ब्रह्मदत्त ने कहा- “मेरे राज्य में कभी भी व्याभिचार, चोरी या अपमृत्यु न हो, वैसा करो।' नागकुमार ने कहा इस प्रकार ही हो। परंतु आपकी ऐसी परार्थ याचना सुनकर विशेष संतुष्ट हुआ हूँ। इसलिए अब अपने स्वार्थ के लिए कुछ याचना करो। ब्रह्मदत्त ने विचार करके कहा कि 'मैं सब प्राणियों की भाषा अच्छी तरह समझ सकूँ, ऐसा करो।' नागकुमार ने कहा कि ऐसा वरदान देना मुश्किल है फिर भी मैं तुमको देता हूँ।' परंतु यदि तुम यह बात अन्य को बताओगे तो तुम्हारे मस्तक के सात भाग हो जायेंगे। ऐसा कहकर नागकुमार अपने स्थान पर चला गया।
(गा. 531 से 550)
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)