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के घर ले गया। रत्नवती के काका ने विपुल समृद्धि से ब्रह्मदत्त और रत्नवती का विवाह महोत्सव किया। धनवान पुरुषों को सभी काम सरल है। वहाँ ब्रह्मदत्त उसके साथ विषयसुख भोगने लगा।
(गा. 393 से 400) ___ एक बार ब्रह्मदत्त ने अपने मित्र वरधन का उत्तरकार्य करना प्रारंभ किया। उसने साक्षात् भूत जैसे ब्राह्मण को जिमाया। उसी समय अकस्मात् ब्राह्मण के वेश में वरधनु भी वहाँ आ पहुँचा, एवं ब्रह्मदत्त को इस प्रकार कहने लगा कि “यदि आप मुझे भोजन दोगे तो वह साक्षात् वरधनु को ही मिलेगा।" ऐसी अमृत जैसी वाणी श्रवण करके ब्रह्मदत्त ने तत्काल ही उसके सामने देखा, और उसे पहचान लिया। मानों दो शरीर को एक हो गये हों, वैसा उसने उसका आलिंगन किया। हर्षाश्रु से नहलाता हुआ, वह उसे अंतर्गृह में ले गया। बाद में कुमार ने उसे उसका वृत्तांत पूछा। तब वह अपना वृत्तांत कहने लगा – “हे मित्र! तुम तो सो गए बाद में दीर्घराजा के सुभटों की तरह चोर लोगों ने मुझे अवरुद्ध कर लिया। वृक्ष के अंदर रहे एक चोर ने मुझे बाण मारा। इससे मैं पृथ्वी पर गिर पड़ा। और लताओं के अंतर में ढंक गया। मुझे उन्होंने देखा नहीं। तो आये हुए चोर सब चले गए। बाद में जल में मत्स्य की तरह वृक्षों में छुपता छुपता मैं अनुक्रम से एक गांव में आया। उस गांव के नायक के पास से आपके समाचार लेकर चलता चलता मैं यहाँ आया हूँ। दैवयोग से मेघ को मयूर के समान मैंने तुमको यहाँ देखा।" ब्रह्मदत्त ने कहा 'हे मित्र! नपुंसक के तुल्य पुरुषार्थ किये बिना, इस हालत में ऐसे कहाँ तक मुझे भटकते रहना हैं ?
(गा. 401 से 409) इसी समय कामदेव के साम्राज्यभूत और मधु के समान युवकजनों में मद को उत्पन्न करनेवाला वसन्तोत्सव प्रगट हुआ। इतने में एक दिन मानो काल का ही अनुज बंधु हो, वैसा राजा का एक उन्मत्त हाथी खूटा उखाड़ कर, सांकल तोड़कर सर्व जनों को त्रास देता हुआ छूट गया। उस हाथी ने नितंब के भार से स्खलित गति से चलती हुई एक कन्या को कमलिनी
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)