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वरधनु को पकड़ कर बांध लिया। उसने संज्ञा से ब्रह्मदत्त को ईशारा कर दिया कि पलायन करो। इससे कुमार ने तत्काल ही वहाँ से पलायन कर दिया, क्योंकि समय आने पर ही पराक्रम बताया जा सकता है। जैसे आश्रमी पुरुष एक आश्रम से दूसरे आश्रम में चला जाता है, वैसे ही वेग से वह उस अटवी में से दूसरी अटवी में चला गया। वहाँ विरस (खराब) और नीरस (रस बिना) फलों का आहार करते हुए उसने दो दिन व्यतीत किये। तीसरे दिन उसे एक तापस दिखाई दिया। कुमार ने पूछा भगवान् आपका आश्रम कहाँ है? तब वह तपस्वी उसे अपने आश्रम में ले गया। तापसों को अतिथि प्रिय होते हैं। वहाँ उसने कुलपति को देखा तभी पिता की भांति उसने हर्ष से उनको नमस्कार किया। “अनजान वस्तु में भी अंतःकरण सत्य की कल्पना करता है।” कुलपति ने उससे पूछा कि वत्स! तुम्हारी आकृति अत्यन्त मधुर ज्ञात होती है, मरुदेश में कल्पवृक्ष समान आपका आगमन यहाँ कैसे हुआ? ब्रह्मकुमार ने उन महात्मा पर विश्वास करके अपना सर्व वृत्तान्त कह सुनाया, क्योंकि प्रायः ऐसे पुरुषों के पास कुछ भी गोप्य नहीं होता।
__ (गा. 180 से 198) ब्रह्मदत्त का वृत्तांत सुनकर कुलपति खुश हो गया। उसने हर्ष से गद् गद् स्वर में कहा कि वत्स! एक आत्मा के दो रूप हों, वैसे ही मैं तुम्हारे पिता का लघु बंधु हूँ। इसलिए अब तुम तम्हारे घर ही आए हो, ऐसा समझकर यहाँ सुख से रहो एवं हमारे तप द्वारा हमारे मनोरथ के साथ वृद्धि को पाओ। इसके पश्चात् लोगों की दृष्टि को आनंददायक और अत्यंत विश्ववल्लभ कुमार उस आश्रम में रहा। अनुक्रम से वर्षाकाल आया। वहाँ रहकर वह बलदेव के पास कृष्ण के समान सर्व अस्त्र और शस्त्र विद्या सीखा। वर्षाऋतु के व्यतीत हो जाने पर बंधु तुल्य शरदऋतु आई। तब तापस फलादिक के लिए वन में गये। उस समय कुलपति ने आदर से उसे बहुत रोका, फिर भी वह ब्रह्मदत्त हाथी के बच्चों के साथ जैसे छोटा बच्चा भी जाता है, वैसे ही उनके साथ वन में जाने को चल पड़ा। इधर उधर घूमते हुए
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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