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बैठकर सम्पूर्ण दिन में इस मंत्र का स्मरण करना। परन्तु उस वक्त कभी कोई तेरा द्रोह करे तो भी तुझे उन पर क्रोध नहीं करना। इस प्रकार 'धर्म का आचरण करने से तुझे स्वर्गलक्ष्मी भी दुर्लभ नहीं।' तूने ऐसा करना स्वीकार किया। तब मुनि ने वहाँ से अन्यत्र विहार किया। एक बार तू एकांत में बैठकर मंत्र का स्मरण कर रहा था कि इतने में वहाँ एक केशरी सिंह आया। उसे देखकर श्रीमती भयभीत हो गई। तब तूने 'भय मत कर' ऐसे बोलते हुए धनुष ग्रहण किया। उस समय श्रीमती ने गुरु के दिए नियम को याद कराया। इससे तू निश्चल हो गया। वह सिंह तेरा और महामति श्रीमती का भक्षण कर गया। वहाँ से मरण के पश्चात् तुम दोनों सौधर्म देवलोक में पल्योपम की आयुष्य वाले देव हुए। वहाँ से च्यव कर अपर विदेह क्षेत्र में चक्रपुरी के राजा कुरुमंगाक के घर बालचन्द्रा रानी के पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। श्रीमती भी वहाँ से च्यव कर कुरुमृगांक राजा का साला सुभूषण राजा की कुरुमती रानी से पुत्री रूप में उत्पन्न हुई। तुम दोनों का शबरमृगांक और वसंतसेना ऐसा नाम रखा गया। अनुक्रम से दोनों अपने स्थान में युवावस्था को प्राप्त हुए। वसंतसेना तेरे गुण सुन कर तुझ पर आसक्त हुई और एक चतुर चित्रकार द्वारा चित्रित रूप पर तुझे भी उस पर अनुराग हो गया। दोनों को परस्पर अनुरक्त जानकर तेरे पिता ने तुझे उसके साथ परणा दिया। तेरे पिता के तापस हो जाने पर तू राजा बना। हे बुद्धिमान! पूर्व में भील के भव में तूने तिर्यंचों का वियोग करवा कर जो कर्म बांधा, वह तेरा इस भव में उदय आया, वह यथार्थ रीति से सुन।
(गा. 258 से 279) उसी विजय में एक महा पराक्रमी वर्धन नाम का जयपुर नगर का राजा था। उसने निष्कारण तुझ पर कोपायमान होकर व्यक्ति भेजकर तुझे कहलाया कि 'तेरी रानी वसंतसेना मुझे सौंप दे, मेरा शासन अंगीकार कर
और बाद में सुख से राज्य भोग।' यह सुनते ही तुझे क्रोध चढ़ा। लोगों ने उस समय अपशकुन होने पर तुझे बहुत रोका, तो भी तू सैन्य सहित एक गजेन्द्र पर बैठकर उससे युद्ध करने निकल पड़ा। वर्धन राजा तो तुझसे पराभव पाकर भाग गया। पश्चात् तप्त नाम का एक बलवान् राजा तेरे साथ
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)