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________________ मरकर कोल्लाक नाम की बड़ी अटवी में तू सियार बना। वहाँ भी तेरी जीभ सड़ जाने से मृत्यु प्राप्त करके तू साकेत नगर में राजमान्य मदनदाता नाम की वेश्या के यहाँ पर पुत्र रूप से उत्पन्न हुआ। जब तू युवा हुआ, तब एक बार मदिरापान करके उन्मत्त होकर तू राजमाता पर आक्रोश करने लगा। राजपुत्र ने तुझे रोका। तो उस पर तू उच्च स्वर से आक्रोश करने लगा। जिससे उसने तेरी जिह्वा छेद डाली। पश्चात् लज्जावशात् अनशन लेकर तूने मृत्यु का वरण किया। वहाँ से इस भव में तू ब्राह्मण बना है। परन्तु अद्यापि तेरे पूर्व कर्म भोगना थोड़ा बाकी है। यह सुनकर मुझे वैराग्य हो गया। इससे शीघ्र ही किसी अच्छे गुरु के पास जाकर संन्यासी हो गया एवं गुरु सेवा में तत्पर रहा। गुरु ने मृत्यु के समय तालोद्घाटिनी विद्या और आकाशगामिनी विद्या मुझे दी एवं शिक्षा दी कि धर्म और शरीर के रक्षण के बिना किसी भी काम में इस विद्या का प्रयोग करना नहीं। हास्य में भी कभी असत्य बोलना नहीं। यदि प्रमाद से असत्य बोला जाय तो नाभि तक जल में रहकर ऊँचे हाथ करके इस विद्या का एक हजार आठ बार जाप करना। विषयासक्ति से गुरु की शिक्षा मैं भूल गया, और मैंने अनेक विपरीत काम किये। उस उद्यान में देवालय के पास रहते हुए मैं तुमसे मृषा बोला। कल स्नान किये बिना देवार्चन करने के लिए कोई देवालय में आया, उसने मुझे तपोव्रत ग्रहण करने का कारण पूछा। तब मैंने इच्छित पत्नि के विरह का झूठा कारण बताया। उसके बाद गुरु के कहे अनुसार जल में रहकर मैंने विद्या का जाप किया नहीं। अर्धरात्रि को सागर श्रेष्ठी के घर चोरी करने को गया। दैवयोग से द्वार उघाड़े ही थे, तो मैं श्वान के जैसे सीधे घर में घुस गया और रुपा और स्वर्ण की चोरी करके बाहर निकला। तो भाग्ययोग से राजपुरुषों ने मुझे पकड़ लिया। उस समय मैंने आकाशगामिनी विद्या को खूब याद करी। परन्तु उसकी स्फुरणा हुई नहीं। यह सर्व वार्ता सुनकर मंत्री ने कहा- तेरी सर्व वस्तु मिली, पर रत्नकरंडक क्यों नहीं मिला? क्या तू उसका स्थान भूल गया? उसने कहा, जहाँ मैंने वह करंडक छुपाया था, उसकी जानकारी किसी को होने से उसका हरण कर लिया लगता है। (गा. 194 से 225) [110] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
SR No.032101
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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