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समय उस सागरदत्त ने पार्थप्रभु के पास दीक्षा ली। पश्चात् सुर असुरों से सेवित और सर्व अतिशयों से सम्पूर्ण प्रभु ने अपने परिवार के साथ अन्यत्र विहार कर दिया।
(गा. 42 से 49) नागेन्द्र की भांति नागपुरी नगरी में यशस्वियों में अग्रणी सूरतेज नाम का राजा था। उस नगरी में धनपति नामक एक धनाढ्य श्रेष्ठी रहता था, जो कि राजा को बहुत प्रिय था। उसके सुन्दरी नामक शीलवती सुन्दर स्त्री थी। पितामह के नाम वाला बंधुदत्त नामक एक विनीत और गुणवान् पुत्र था, अनुक्रम से वह युवावस्था को प्राप्त हुआ।
(गा. 50 से 52) उस समय वत्स नामक विजय में कौशांबी नगरी में शत्रुओं का मानभंग करने वाला मानभंग नाम का राजा राज्य करता था। उस नगरी में जिनधर्म में तत्पर जिनदत्त नाम का एक धनाढ्य श्रेष्ठी रहता था। उसके वसुमति नाम की स्त्री थी। उनके प्रियदर्शना नाम की पुत्री हुई। अंगद नाम के विद्याधर की पुत्री मृगांकलेखा नाम की उसकी सखी थी, जो कि जैनधर्म में लीन थी। ये दोनों ही सखियाँ देवपूजा, गुरु की उपासना, और धर्माख्यान आदि कृत्यों में अपना समय निर्गमन करती थी। एक समय कोई साधु गोचरी जा रहे थे। उन्होंने प्रियदर्शना को उद्देश्य करके कहा कि 'यह महात्मा स्त्री पुत्र को जन्म देकर दीक्षा लेगी। यह सुनकर मृगांकलेखा अत्यन्त हर्षित हुई। परन्तु उसने यह बात किसी से भी कही नहीं।
(गा. 53 से 55) किसी समय धनपति श्रेष्ठी ने अपने पुत्र के लिए नागपुरी में ही निवास करने वाला वसुनंद नाम के श्रेष्ठी की चन्द्रलेखा नाम की कन्या की मांग की। उसने अपनी पुत्री उस श्रेष्ठीपुत्र को दी। पश्चात् एक शुभ दिन में महा उत्सव से बंधुदत्त और चन्द्रलेखा का विवाह हुआ। दूसरे ही दिन अभी जिसका हाथ मंगलकंकण से ही अंकित हुआ, ऐसी उस चन्द्रलेखा को रात्रि में सर्प ने आकर डसा, फलस्वरूप तत्काल ही उसकी मृत्यु हो गई। इस प्रकार ‘कर्म
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
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