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________________ रूपी औषधी के रस बिना निवृत्त होता नहीं है। यह महोत्सव नदी के नवीनरूप तुल्य प्राणियों को इस संसार में से पार उतरने के लिए एक नये तीर्थ (आरा) रूप है। अनंत चतुष्टय को सिद्ध करने वाला, सर्व अतिशयों से सुशोभित, उदासीनवृत्ति से रहने वाले, सदैव प्रसन्न ऐसे आपको नमस्कार हो। प्रत्येक जन्म में अत्यन्त उपद्रव करने वाले ऐसे दुरात्मा मेघमाली पर भी आपने करुणा की है, अतः आपकी करुणा कहाँ नहीं है ? (अर्थात् सर्वत्र है) हे प्रभो! “जहाँ तहाँ स्थित और चाहे जहाँ जाते हुए हमको हमेशा आपत्ति का निवारण करने वाला ऐसे आपके चरण कमल का स्मरण होता रहे।" (गा. 312 से 319) इस प्रकार स्तुति करके शक्रेन्द्र और अश्वसेन राजा ने विराम लिया। तत्पश्चात् श्री पार्श्वनाथ भगवन्त ने इस प्रकार देशना दी- 'अहो! भव्य प्राणियों! जरा, रोग और मृत्यु से भरे इस संसार रूप विशाल अरण्य में धर्म के बिना अन्य कोई त्राता नहीं है, अतः वही हमेशा सेवन करने योग्य है। वह धर्म सर्वविरति और देशविरति रूप दो प्रकार का है, उसमें अनगारी साधुओं का पहला सर्वविरति धर्म है। वह संयमादि दस प्रकार का है और आगारी गृहस्थ का दूसरा देशविरति धर्म है। वह पांच अणुव्रत, तीन गुणव्रत और चार शिक्षाव्रत इस प्रकार बारह प्रकार का है। यदि वह व्रत अतिचार वाले हों तो सुकृत को प्रदान नहीं करते। इन एक एक व्रत के पाँच-पाँच अतिचार हैं, वे त्यागने योग्य हैं। (गा. 320 से 324) पहला व्रत जो अहिंसा है, उसमें क्रोध द्वारा वध, बंध, छविच्छेद अधिक भार आरोपण, प्रहार और अन्नादि का रोध ये पाँच अतिचार हैं। दूसरा व्रत सत्य वचन- उसमें मिथ्या उपदेश, सहसा अभ्याख्यान, गुह्य भाषण, विश्वासी द्वारा कथित धर्म का भेद और कूट लेख- ये पाँच अतिचार हैं। तीसरा व्रत अस्तेय (चोरी न करना) चोर को अनुज्ञा देना, चोरी हुई वस्तु ग्रहण करना, शत्रु राज्य का उल्लंघन करना, प्रतिरूप वस्तु का भेलसंभेल करना और मान-माप, तोल खोटा करना- ये पाँच अतिचार हैं। [90] त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (नवम पर्व)
SR No.032101
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 07
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2016
Total Pages130
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size9 MB
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