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________________ इस प्रकार राजहंस को मानुषी वाणी में बोलते देख राजकुंवरी विस्मित हुई और प्रिय अतिथि की भांति उसे गौरव देते हुए इस प्रकार कहा- हे हंस ! तू तो उल्टा प्रासाद पात्र हो गया। वह प्रिय कौन है ? यह कह । आधी कही हुई बात मिश्री से मीठी लगती है। हंस बोला - कोशला नगरी में खेचरपति कोशल राजा के सुकोशला नाम की दुहिता है । उस सुकोशला का युवा पति श्रेष्ठ सौंदर्य वान है और उसे देखकर सर्वरूपवान स्त्री की रेखा भी भग्न हो जाती है। सुंदरी ! तुमको अधिक क्या कहूं? उस सुकोशला के पति का सौंदर्य ऐसा है कि उसके नमूने का रूप यदि हो तो वह मात्र दर्पण में ही है, दूसरा नहीं । हे मनस्विनी । जिस प्रकार वह युवान रूप संपति से नर शिरोमणि है, उसी प्रकार तू भी रूप संपति में सर्व नारियों में शिरोमणि है। मैं तुम दोनों के रूप का द्रष्टा हूँ, तुम दोनों का समागम हो, इस इच्छा से उनका वृत्तांत मैंने तुमको बताया है और हे भद्रे ! तुम्हारा स्वंयवर सुनकर मैंने उनके पास भी तुम्हारा वर्णन किया हुआ है कि जिससे वे स्वेच्छा से तुम्हारे स्वंयवर में आवेंगे। नक्षत्रों में चंद्र की भांति स्वंयवर मंडप में अनेक राजाओं के बीच में अद्भुत तेज वेष्ठित उस नररत्न को तू पहचान वे । अब तू मुझको छोड़ दे । तेरा कल्याण हो । मुझे पकड़ने से तेरा अपवाद होगा और मेरे छूटे रहने से विधि के जैसे तेरे पति के लिए प्रयत्न करूंगा । इस प्रकार हंस की वाणी सुनकर कनकवती सोचने लगी कि क्रीड़ामात्र से हंस के रूप को धारण करने वाला यह कोई सामान्य पुरुष नहीं है, अतः इसके द्वारा अवश्य मुझे पति प्राप्त होगा। ऐसा सोच उसने हंस को छोड दिया । वह उसके हाथों से छूटकर आकाश में उड़ा और उस कनकवती के उत्संग में एक चित्रपट डालकर कहा, हे भद्रे! जैसा मैंने उस युवापुरूष को देखा है, वैसा ही चित्रपट में चिचित्र है। वह जब यहां आवे तब इससे तू पहचान जाना । कनकवती प्रसन्न होकर अंजलि जोड़ बोली- हे हंस ! तुम कौन हो ? मुझ पर अनुग्रह करके कहो । (गा. 42 से 54 ) उसी समय हंस के वाहन पर एक खेचर प्रकट हुआ । कान के कुंडलों को चलायमान करता हुआ, साथ ही दिव्य अंगराग को धारण करता हुआ वह इस प्रकार सत्य वचन बोला- हे वशनने । मैं चंद्रातपे नाम का खेचर हूं और तुम्हारे भावी पति के चरण की सेवा में तत्पर हूँ। और फिर हे निरधे! विद्या के प्रभाव से अन्य बातें भी तुमको बताता हूँ कि वह युवा किसी का दूत बनकर आपके त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व ) 80
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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