________________
तृतीय सर्ग
(कनकवती का विवाह और उसके पूर्व भव का वर्णन)
(नल-दमयंती चरित्र)
__इस भरतक्षेत्र में विद्याधरों के नगर जैसा पेढालपुर नाम का नगर है। जो कि सर्व अद्भुत निधानों का उत्पत्तिस्थान है। जिसमें प्रफुल्लित गृहोद्यान का पवन आगंतुको के वस्त्रों से मिलकर सुंगधदायक होकर हमेशा युवा स्त्रियों पुरूषों को सुख प्रदान करता है। जहाँ घरों की रत्नबद्ध भूमि में रात्रि में ताराओं का प्रतिबिंब पडने से मुग्ध बालिकाएँ दंतमय कर्णाभूषण की शंका से वह लाने के लिए अपना हाथ बढाती हैं। जहाँ निधानवाले और ऊँची पताका वाले घरों पर उडती हुई पताकाओं की छाया मानों वे निधान रक्षक सर्प हों, ऐसा मालूम होता है। उस नगर के वासी सभी लोग वस्त्र के साथ गली के रंग जैसा जैन धर्म के साथ दृढ़ रूप से जुडें है।
__ (गा. 1 से 5) ___ उस नगर में सद्गुणों के चन्द्र जैसा निर्मल और अद्भुत समृद्धि वाला इन्द्र का अनुज बंधु हो ऐसा यूं प्रतीत होता था। यह हरिशचंद्र नाम का राजा था। इंद्रियों के विजय में जागृत और न्याय तथा पराक्रम से शोभित ऐसे उस राजा की भृकुटीरूप लता के आगे सर्व संपत्तियां दासी होकर रही हुई थी। उसका निर्मल यश अपार लक्ष्मी की स्पर्धा करता हो, इस प्रकार अपार जगत् में मुक्त रूप से वृद्धि पा रहा था। निर्मल यश की राशि रूप, उस राजा का नाम देव व खेचरों की स्त्रियाँ वैतादयगिरी की भूमि पर गाती थी। उस राजा के विष्णु के लक्ष्मी की भांति लक्ष्मीवती नाम की अति रूपवती प्राणवल्लभा थी। शील, लज्जा, प्रेम, दक्षता और विनय से वह रमणी पति के मनरूप कुमुद को आनंद देने में चंद्रिका जैसी थी। जब वह अपने पति के साथ प्रीतिपूर्वक कोमल वाणी से आलाप करती तब उसके कर्णरंध्र में मानो अमृत की धार चलती हो, वैसी लगती थी।
(गा. 6 से 12) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)