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________________ शिलायुध से कहा कि मैं ऋतुरजाता हूँ, यदि उसे आज गर्भ रह गया तो कुलवान कन्या की क्या गति होगी? राजा ने कहा मैं इक्ष्वाकु वंश का राजा हूं श्रावस्तवी नगरी में मेरा राज्य है और शतायुध राजा का पुत्र शिलायुध नाम से मैं विख्यात हूँ। यदि तेरे पुत्र होवे तो उसे तु श्रावस्तवी नगरी में लेकर आना, मैं उसे राजा बना दूंगा। तब ऋषिदत्ता की अनुमति लेकर अपने स्थान को गया। उसने यह हकीकत पिता जी को बता दी। अनुक्रम से उसे पुत्र का प्रसव हुआ। प्रसव में रोग होने पर ऋषिदत्ता की मृत्यु हो गई और ज्वलनप्रभ नागेंद्र की अग्रमहिषी बनी। पुत्री के मरण से पिता अमोघरेता तापस जैसे पुत्र को हाथ में लेकर सामान्य लोगों की तरह रुदन करने लगे। ज्वलन प्रभु नागेन्द्र की स्त्री हुयी अवधिज्ञान से सारी हकीकत जानकर भृगरूप में यहाँ आई और स्तनपान करवाकर पुत्र को दुलार किया। कौशिक तापस मृत्यु के पश्चात पिता के आश्रम में दृष्टि विष सर्प हुआ। उस क्रूर सर्प ने मेरे पिता को दंश मारा। परंतु मैंने आकर विष उतारा ओर उस सर्प को बोध दिया। वह सर्प मरकर बल नामक देवता हुआ। मैं का रूप लेकर श्रावस्तवी नगरी में गई और शिलायुध राजा को पुत्र देने लगी। तब पुत्र को उसके पास रखकर आकाश में स्थित रहकर मैंने कहा कि हे राजन्! वन में रही हुई ऋषिदत्ता कन्या को आपने भोगा था, उसके संगम से यह पुत्र हुआ है। ऋषिदत्ता की प्रसवरोग से मृत्यु हुई अब मैं देवरूप में उत्पन्न हुई हूँ। देवरूप में भी यहाँ आकर मृगरूप में इसे बड़ा किया है। (गा. 530 से 544) इससे इसका नाम एणीपुत्र रखा। इस प्रकार के कथन से राजा को स्मृति आई। तब उसे राज्य देकर शिलायुध राजा दीक्षा लेकर स्वर्ग में गए। उस एणीपुत्र ने संतति के लिए अहम तय करके मुझे संतुष्ट किया, जिससे मैंने उसे एक पुत्री दी, वह यह प्रियंगुसुंदरी है। इस पुत्री के स्वंयवर के लिए एणीपुत्र राजा ने बहुत से राजाओं को आमंत्रित किया था, परंतु उसने किसी को नहीं वरा। इससे सब राजाओं ने मिलकर युद्ध आरंभ किया। परंतु मेरी सहायता से उसने अकेले ने ही सबको जीत लिया। वह प्रियंगुसुंदरी तुमको वरने की इच्छुक है। हे अनध! तुम्हारे लिए उसने अष्टमभक्त करके मेरी आराधना की, जिससे मेरी आज्ञा से द्वारपाल ने आकर आपको उसके घर आने को कहा, परंतु अज्ञान के कारण द्वारपाल के कथन की आपने अवज्ञा की। अब मेरी आज्ञा से उस द्वारपाल के बुलाए अनुसार तुम वहाँ जाना और एणीपुत्र की कन्या से विवाह त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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