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ही रहो और हे वत्स! यहाँ रहकर नवीन कलाएं सीखो और जो कुछ सीखा है उसे याद करो। कलाकारों की गोष्ठी मे तुमको विनोद उत्पन्न होगा। इस प्रकार अग्रज बंधु के वचनों को सुनकर विनीत वसुदेव ने स्वीकार किया और तब से महलों में रहकर गीत नृत्यादि में विनोद करते हुए दिन व्यतीत करने लगे।
(गा. 114 से 123) एक दिन गंध लेकर कुब्जा नामक एक गंधधारिणी दासी जा रही थी। उससे कुमार ने पूछा, यह गंध किसके लिए ले जा रही हो? कुब्जा बोली, यह गंधद्रव्य राजा समुद्रविजय के लिए शिवादेवी ने स्वयं भेजा है। वसुदेव ने कहा, यह गंधद्रव्य मेरे भी काम आएगा। ऐसा कह मजाक में उन्होंने वह गंधद्रव्य उसके पास से ले लिया। इसलिए वह कुपित होकर बोली, तुम्हारे ऐसे कृत्य से ही तो तुमको नियंत्रित करके यहाँ रखा है। कुमार ने कहा, यह क्या कहते हो? तब भयभीत हुई कुब्जा ने नगर जनों का सर्व वृतांत अथ से इति तक कह सुनाया। क्योंकि स्त्रियों के हृदय में कोई बात दीर्घ काल तक रहती ही नहीं है। दासी द्वारा कही बात जानकर वसुदेव ने विचार किया कि नगर की स्त्रियों की अपने ऊपर अनुरक्ती जाग्रत करने के लिए मैं नगर में घूमता हूँ इस प्रकार यदि समुद्रविजय मानते हों तो मुझे वहाँ निवास करने की कोई आवश्यकता नहीं है ऐसा विचार करके कुब्जा को विदाकर उसी रात्रि में गुटिका से वेश परिवर्तन करके वसुदेव कुमार नगर से बाहर निकल गए।
(गा. 124 से 130) __ वहाँ से शमशान में आकर निकट पड़े काष्ठ की चिता बनाकर उसमें किसी अनाथ शव को रखकर वसुदेव ने उसे जला डाला। गुरूजनों को क्षमाते हुए वसुदेव ने अपने हस्ताक्षर से पत्र लिखकर एक स्तंभ के ऊपर लटका कर उसमें इस प्रकार लिखा कि लोगों ने गुरूजन के समक्ष गुण को दोष रूप स्थापित किया, अतः अपनी आत्मा को जिंदा ही मरा जैसे समझ वसुदेव ने अग्नि में प्रवेश किया है। इसलिए अपने तर्क-वितर्क से कल्पित मेरा हुआ या न हुआ दोष सर्व गुरूजन और नगरजन मुझे क्षमा करें। ऐसा करके ब्राह्मण का वेश बनाकर वसुदेव उन्मार्ग पर चल दिये। अनुक्रम से बहुत समय तक चल लेने पर सन्मार्ग आया। वहाँ किसी रूप में बैठी हुई स्त्री ने उसको देखा। वह स्त्री अपने पिता के घर जा रही थी। उसने अपनी माता को कहा कि इस श्रांत थके हारे ब्राह्मण को
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)