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उनके लक्ष्मी तुल्य श्रीमती नामकी पट्टरानी थी। एक समय रानी ने रात्रि के शेषभाग में स्वप्न में शंख जैसा उज्जवल पूर्णचंद्र अपने मुखकमल में प्रवेश करते देखा। प्रातःकाल में वह सर्व वृत्तांत उसने अपने पति श्रीषेण राजा को निवेदन किया। राजा ने स्वप्नवेत्ता को बुलाकर उसका निर्णय किया कि 'इस स्वप्न से चंद्र जैसा सर्व शत्रु रूप अंधकार का नाश करने वाला एक पुत्र देवी को होगा।' उसी रात्रि को अपराजित का जीव आरव देवलोक से च्यव कर श्रीमती देवी की कुक्षि में अवतरित होगा। उचित समय पर रानी ने सर्व लक्षणों से पवित्र एक सम्पन्न पुत्र को जन्म दिया। पिता ने पूर्वज के नाम से शंख नाम रखा। पांच धायमाता से लालित पालित होते हुए शंख कुमार बड़ा हुआ। गुरु को तो मात्र साक्षीभूत रखकर प्रतिजन्म में अभ्यस्त सर्व कलाएँ लीलामात्र में संपादन कर ली। विमलबोध मंत्री का जीव आरण देवलोक से चलकर श्रीषेण राजा का गुणनिधि नाम के मंत्री का मतिप्रभ नामक पुत्र हुआ। वह कामदेव के बसंत ऋतु की तरह शंखकुमार के साथ क्रीड़ा करने वाला सहध्यायी मित्र हुआ। मतिप्रभ मंत्रीपुत्र और अन्य राजकुमारों के साथ विविध प्रकार की क्रीड़ा करता हुआ शंखकुमार यौवनवय को प्राप्त हुआ।
(गा. 45 2 से 461) एक समय उनके देश के लोग दूर से पुकार करते हुए आकर श्रीषेण राजा को विज्ञप्ति करने लगे- हे राजेन्द्र! आपके देश की सीमा पर अति विषम ऊँचा, विशाल शिखरों से युक्त, शशिरा नामकी नदी से अंकित चंद्र नामका पर्वत है। उस पर्वत के दुर्ग में समरकेतु नाम का पल्लिपति रहता है। वह निःशंक रूप से हमको लूटता है। हे प्रभो! उससे हमारी रक्षा करो। यह सुनकर उसके वध के प्रयोजन से प्रयाण करने के लिए राजा ने (रणभेरी) बजवाई। उसे सुनकर शंखकुमार ने पिताजी को नमस्कार करके नम्रतापूर्वक कहा, 'पिताजी! एक पल्लिपति के लिए आप इतना श्रम क्यों करते हैं ? मसले को मारने के लिए हाथी और खरगोश को मारने के लिए सिंह को तैयार होने की जरूरत नहीं है। अतः तात! मुझे आज्ञा दो, मैं उसे बांधकर यहाँ ले आऊँगा। आप प्रयाण करने का विचार त्याग दें, क्योंकि यह आपके लिए लज्जास्पद है।' पुत्र के ऐसे वचन सुनकर तत्काल ही राजा ने ससैन्य उसे विदा किया। अनुक्रम से चलता हुआ कुमार उस पल्ली पती के पास आया। कुमार को आता हुआ जानकर कपटियों में श्रेष्ठ वह पल्लिपति दुर्ग को शून्य छोड़कर अन्य गृह में छिप गया। कुशाग्र बुद्धिवाले
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)