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बोला- 'माता-पिता के इस प्रकार दुःख देने वाले मेरे जैसे पुत्र को धिक्कार है।' पश्चात् जितशत्रु राजा की आज्ञा लेकर अपराजित कुमार ने वहाँ से प्रस्थान किया। उस समय अपनी दोनों पुत्रियों को लेकर भुवनभानु राजा वहाँ आ गये। अभय प्राप्त करने वाला सूरकांत राजा भी आ पहुँचा। अतः प्रीतिमती तथा अन्य सर्व पत्नियों तथा भूचर और खेचर राजाओं से परिवृत्त, भूचर-खेचर सैन्य से भूमि और आकाश को आच्छादित करता हुआ कुमार थोड़े दिन में सिंहपुर नगर आ पहुँचा। हरिणंदी राजा सामने जाकर पृथ्वी पर लौटते हुए कुमार को आलिंगन करके उत्स में बिठाकर बारम्बार उसके मस्तक पर चुंबन करने लगे। पश्चात् माता ने नेत्र में आँसू लाकर प्रणाम करते हुए कुमार के पृष्ठ पर कर द्वारा स्पर्श किया और उसके मस्तक पर चुंबन किया। प्रीतिमती आदि सर्व वधुओं ने, भी अपने सास-श्वसुर के चरणों में झुककर प्रणाम किया। तब विमलबोध से उन सबके नाम ले लेकर सबका परिचय देकर विदा किया और स्वयं वहाँ रहकर अपने माता-पिता के नेत्रों को प्रसन्न करता हुआ, सुखपूर्वक क्रीड़ा करने लगा।
(गा. 419 से 432) __ मनोगति और चपलगति जो महेन्द्र देवलोक में उत्पन्न हुए थे, वे वहाँ से च्यव कर सूर और सोम नामक अपराजित कुमार के अनुज बंधु हुए। एक समय राजा हरिणंदी ने अपराजित कुमार को राज्य सिंहसन पर बिठाकर स्वयं दीक्षा ली। उन राजर्षि ने तपस्या करके उत्तम चारित्र पालन करके परम पद प्राप्त किया। अपराजित राजा और प्रीतिमती पट्टराणी हुई और विमलबोध मंत्री हुआ। दोनों अनुज बंधु मंडलेश्वर हुए। अपराजित राजा ने पहले से ही अन्य राजाओं को आधीन कर लिया था, अतः वह सुखपूर्वक राज्य करने लगा और निर्विघ्न भोगों को भोगने लगा। पुरुषार्थ से अवंथित (यथायोग्य पुरुषार्थ को साधता) अपराजित राजा विचित्र चैत्यों और लाखों रथयात्राएँ करते हुए काल निर्गमन करने लगा।
(गा. 433 से 437) एक बार अपराजित राजा उद्यान में गये थे, वहाँ उन्होंने मर्तिमान कामदेव के समान अनंगदेव नामक सार्थवाह के समृद्धिवान् पुत्र को देखा। वह दिव्य वेष को धारण करके समानवय के मित्रों से घिरा हुआ था, बहुत सी
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)