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वैताढ्य पर्वत पर रथनुपूर नामक नगर के खेचरपति अमृतसेन की यह दुहिता है। उसके वर के लिए पूछने पर गुणरत्न का सागर हरिनंदी राजा का पुत्र अपराजित नामक युवा पुत्र इस कन्या का वर होगा, ‘ऐसा किसी ज्ञानी ने कहा था। तभी ये यह बाला उस पर अनुरक्त थी। जिससे अन्य किसी पर अपना मन नहीं लगाती थी। एक बार यह बाला मेरे देखने में आई, जिससे मैंने वरण की मांगी की। उसने कहा कि कुमार अपराजित मेरा पाणिग्रहण करे अथवा मेरे अंगों को अग्नि दहन करे उसके सिवा मेरी कोई गति नहीं है। उसके ऐसे वचन से मुझे बहुत गुस्सा आया। मैं श्रीषेण विद्याधर का सूरकांत नामक पुत्र हूँ। उसी दिन से मुझे उससे पाणिग्रहण का आग्रह बंध गया। उसके बाद नगर से निकलकर मैंने अनन्त दुःसाध्य विद्याओं को भी साधित किया। फिर पुनः विविध उपायों से मैंने उससे प्रार्थना की। तथापि इस बाला ने जब मेरी इच्छा को स्वीकारा नहीं, तब मैं उसका हरण करके यहाँ ले आया क्योंकि 'कामांघ पुरुष क्या नहीं करता ?' जब इस स्त्री ने मेरी प्रार्थना को स्वीकारा नहीं, तब इसके शरीर को अग्नि से दहन करके इस रूप की प्रतिज्ञा पूर्ण करने के लिए खड्ग द्वारा खंडित करके मैं इसे अग्नि में डालने को तत्पर हुआ था कि इतने में आकर आपने इसे मौत के मुँह से बचा लिया। इसलिए तुम हम दोनों के उपकारी हो। हे महाभुज! अब कहो, तुम कौन हो? तब मंत्रीपुत्र ने उसे कुमार का कुल, नाम आदि कह सुनाया, यह सुनकर अकस्मात् प्राप्त हुए इष्ट समागम से रत्नमाला अत्यन्त खुश हुई। उस समय उसके पीछे शोध के लिए निकले हुए कीर्तिमति और अमृतसेन नाम के उसके माता-पिता वहाँ आ पहुँचे। उनके पूछने पर मंत्री पुत्र ने उनको भी सर्व वृत्तांत कह सुनाया। अतः जो त्राता था वही उसका पाणिग्रहण करने वाला हुआ, यह जानकर वे बहुत खुश हुए। पश्चात् उनके कहने पर रत्नमाला से विवाह किया और उसके कहने से सूरकांत विद्याधर को अभयदान दिया। सूरकांत विद्याधर ने उस निस्पृह कुमार अपराजित को मणि और मूलिका दी और मंत्रीपुत्र को दूसरा वेष कर सके, ऐसी गुटिका दी। पश्चात् जब मैं अपने स्थान पर जाऊँ, तब आपकी पुत्री को वहाँ भेज देना, ऐसा अमृतसेन को कहकर अपराजित कुमार आगे चल दिया। पुत्री सहित अमृतसेन तथा सूरकांत विद्याधर अपराजित को याद करते करते अपनेअपने स्थान पर गये।
(गा. 311 से 326)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)