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और तीक्ष्ण खड्गों को उठाये हुए अनेक आरक्षक पुरुष वहाँ आ गये और कहने लगे, अरे मुसाफिरों! सारे नगर को लूटने वाले इस लुटेरे पुरुष को तुम छोड़ दो, हम इसे मार डालेंगे, दूर से ही ऐसा वे कहने लगे। कुमार ने हंसकर कहा, यह पुरुष मेरी शरण में आया है, अब इंद्र का भी इसे मारना संदेहास्पद है तो दूसरे की तो बात ही क्या? ऐसा सुनने पर वे आरक्षक क्रोध से उन पर प्रहार करने लगे। तब मृगों को जैसे सिंह मार डालता है, उसी भांति कुमार खड्ग उठाकर मारने को दौड़ा। आरक्षकों ने कौशल पति को कहा। कौशलेश ने चोर के रक्षक को मारने की इच्छा से एक बड़ी सेना भेजी। अपराजित कुमार ने क्षणभर में उसे जीत लिया। तब राजा घोड़े, हाथी आदि असवारों के साथ वहाँ आया। उनको देखकर अपराजित कुमार ने चोर को मंत्रीपुत्र के सुपुर्द कर दृढ़ परिकर बद्ध होकर युद्ध के लिए सन्नद्ध हुआ। सिहं की तरह एक हाथी के दांत पर पैर रखकर उसके कुंभस्थल पर चढ़ गया, तथा उसके गजस्वार को मार डाला और उस हाथी पर बैठकर अपराजित कुमार युद्ध करने लगा। इतने में एक मंत्री ने उसे पहचान कर राजा को बताया। तब कौशलेश्वर सभी सैनिकों को युद्ध करने का निषेध करते हुए बोले, अरे यह कुमार तो मेरे मित्र हरिणंदी का पुत्र है, ऐसा कहकर कुमार को सम्बोधित करके कहा- शाबास! तेरे अद्भुत पराक्रम को धन्य है। वास्तव में तू मेरे मित्र का पुत्र है, क्योंकि सिंह के बालक के बिना हाथी को मारने में कौन समर्थ है ? हे महाभुज। ‘अपने घर से दूसरे घर जैसे कोई जाता है, उसी प्रकार भाग्ययोग से तूं मेरे घर आया है, यह बहुत अच्छी बात है।' इस प्रकार कहकर उन्होंने हाथी पर बैठे-बैठे ही उसको आलिंगन किया। पश्चात् लज्जा से जिसका मुखकमल नम्र हो गया ऐसे कुमार को अपने हाथी पर बिठाकर पुत्र की भांति वात्सल्य भाव से अपने घर ले आया। उस चोर को विदा करके मंत्री पुत्र भी अपराजित कुमार के पीछे-पीछे वहाँ आया। दोनों मित्र कौशलराजा के घर आनंद से रहने लगे। आनंदित हुए कौशलपति ने अपनी एक कन्या कनकमाला का विवाह अपराजित कुमार से किया। अनेक दिन वहाँ व्यतीत करके एक दिन अपने देशांतर जाने में विघ्नरूप न हो इसलिए किसी को भी कहे बिना अपराजित कुमार अपने मित्र सहित रात्रि के गुप्त रीति में निकल गया।
(गा. 277 से 293)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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