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________________ हुआ? क्या यादवों का क्षय हुआ? अरे! तुम्हारी यह अवस्था देखकर लगता है कि नेमिनाथ की वाणी सत्य हो गई है। जब कृष्ण ने सर्व वृत्तांत कह सुनाया। जराकुमार ने रुदन करते हुए कहा कि- 'अरे भाई! मैंने यह शत्रु योग्य ऐसा कार्य किया है, कनिष्ठ, दुर्दशा में मग्न और भ्रातृवत्सल ऐसे तुमको मारने से मुझे नरकभूमि में भी स्थान मिलना संभव नहीं है। तुम्हारी रक्षा के खातिर मैंने वनवास धारण किया, परंतु मुझे ऐसा पता नहीं कि विधि ने पहले से ही मुझे तुम्हारे कालरूप में कल्पित किया है। हे पृथ्वी! तू विश्वास दे कि जिससे मैं इस शरीर से ही नरकभूमि में जाऊँ, कारण कि तुम्हारी विद्यमानता में ही मैं एक साधारण मनुष्य यदि मर जाता तो क्या न्यूनता हो जाती? कृष्ण बोले- हे भाई! अब शोक मत करो। जराकुमार कहने लगा सर्व दुःख से अधिक भ्रातृहत्या का दुःख आ जाने से अब यहाँ रहना मुझे नरक से भी अधिक दुःखदायी है। मैंने ऐसा अकार्य किया है कि अब मैं वसुदेव का पुत्र, या तुम्हारा भ्राता या मनुष्य भी रह सकूँ ? उस समय सर्वज्ञ के वचन सुनकर मैं मर क्यों नहीं गया। अब शोक करने से भी क्या? कारण कि तुमसे या मुझसे भवितव्यता का उल्लंघन नहीं हो सकता है। हे जराकुमार, तुम यादवों में मात्र एक ही अवशेष रहे हो। इसलिए तुम चिरकाल तक जीओ और यहाँ से शीघ्र ही चले जाओ। क्योंकि बलराम यहाँ पहुँचेगे तो वे मेरे वध करने वाले को क्रोध से मार डालेंगे। यह मेरा कौस्तुभ रत्न निशानी रूप में लेकर तुम पांडवों के पास चले जाओ। यह सत्य वृत्तांत कहना। वे अवश्य तुम्हारी सहायता करेंगे। तुम यहाँ से उल्टे पैरों चले जाओ, ताकि राम तुम्हारे पद चिह्नों का अनुसरण करके आवे तो भी शीघ्र ही तुम मिल नहीं सकोगे। मेरे वचन से सर्व पांडवों को और अन्यों को भी खमाना (क्षमा मांगना)। क्योंकि पहले मेरे ऐश्वर्य के समय में मैंने उनको देश निकाला देकर क्लेश पहुंचाया है। ऐसा कृष्ण ने बार-बार कहा। जराकुमार कृष्ण के चरण में से अपना बाण खींच कर कौस्तुभ रत्न लेकर वहाँ से चला गया। (गा. 123 से 153) जराकुमार के जाने के बाद कृष्ण चरण की वेदना से पीड़ित होने पर भी उत्तराभिमुख रहकर अंजली जोड़कर इस प्रकार कहने लगे कि- अहँत भगवंत, सिद्ध, आचार्य, उपाध्याय, और साधुओं को मन-वचन-काया से मेरा नमस्कार हो। फिर जिन्होंने हम जैसे पापियों का त्याग करके धर्मतीर्थ का प्रवर्तन किया, ऐसे भगवंत श्री अरिष्टनेमि परमेष्ठी को मेरा नमस्कार हो। 296 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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