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________________ लाये, इतने में उसके दोनों किवाड़ बंध हो गये। राम ने पग की एड़ी के प्रहार से उन दोनों किवाड़ों को तोड़ डाला । तथापि मानो पृथ्वी ने ग्रस लिया हो। वैसे जमीन में धंसे हुए रथ को बाहर निकाल नहीं सके। उस समय द्वैपायन देव ने आकर कहा कि 'अरे बलराम और कृष्ण ! तुमको यह क्या मोह हुआ है ? मैंने तुमको पहले ही कहा था कि - तुम्हारे दो के सिवा अन्य कोई भी अग्नि में से मुक्त नहीं हो सकेगा। क्योंकि मैंने इसके लिए मेरी तपस्या की भी बली चढ़ा दी। अर्थात् नियाणे द्वारा निष्फल कर दी ।' यह सुनकर उनके माता पिता बोले- हे वत्सों! अब तुम चले जाओ, तुम दोनों जीते रहोगे तो मानों सारे यादव जीते हैं। इसलिए वृथा श्रम मत करो। तुमने तो हमको बचाने के लिए बहुत किया । परंतु भवितव्यता बलवान् और दुर्लध्य है। हम अभागों ने प्रभु के पास दीक्षा ली नहीं, तो अब हम हमारे कर्मों के फल को भोगेंगे । उनको इस प्रकार कहते, सुनकर भी जब राम - कृष्ण उनको छोड़कर गये नहीं, तब वसुदेव देवकी और रोहिणी ने कहा कि 'अभी से ही हमको त्रिजगद्गुरु श्री नेमिनाथजी की शरण है, हम चतुर्विध आहार के पच्चक्खाण करते हैं और शरणेच्छु ऐसे हम अर्हत, सिद्ध साधु और अर्हत कथित धर्म का शरण अंगीकार करते हैं । हम किसी के नहीं और कोई हमारा नहीं है । इस प्रकार आराधना करके वे नवकार मंत्र के ध्यान में तत्पर हुए। तब द्वैपायन ने उनके ऊपर अग्नि के मेघ की तरह अग्नि बरसाई। इससे वे तीनों शीघ्र ही मृत्यु पाकर स्वर्ग में गये । राम और कृष्ण नगरी के बाहर निकलकर जीर्णोद्यान में गये और खड़े रहकर जलती हुई द्वारकापुरी को देखने लगे । (गा. 57 से 89 ) द्वारका में अग्नि के जलने से माणक की दीवारें पाषाण के टुकड़ों की तरह चूर्ण होने लगी। गोशीर्षचंदन के स्तंभ भूसे की तरह ध्वस्त हो रहे थे । किल्ले के कंगूरे तड़-तड़ शब्द करके टूट रहे थे और घरों के तलभाग में फट फट शब्द करते फूट रहे थे । समुद्र में जल की तरह अग्नि की ज्वालाओं जरा भी अंतर नहीं था। प्रलयकाल में जिस प्रकार सर्वत्र एकार्णव हो जाय वैसे सर्व नगरी एकल रूप हो गई थी । अग्नि अपना ज्वालारूप करों से नाच रही थी । अपने शब्दों से गर्जना कर रहे थे और विस्तरित होते धुँए के बहाने से नगर जन रूप मछलियों के ऊपर मानों जाल बिछाया हो वैसा दिखाई दे रहा था । इस प्रकार की द्वारका की स्थिति देखकर कृष्ण ने बलभद्र को कहा – नपुंसक जैसा त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 292
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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