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________________ उस समय उस. घातकीखंड में चंपानगरी के पूर्णभद्र नामक उद्यान में भगवान श्री मुनिसुव्रत प्रभु समवसरे थे। उनकी सभा में कपिल वसुदेव बैठे थे। उन्होंने प्रभु को पूछा कि, 'स्वामिन्! मेरे जैसा यह किसके शंख का नाद सुनाई दे रहा है ! तब प्रभु ने कहा, 'यह कृष्ण वासुदेव के शंख की ध्वनि है ।' तब कपिल ने पूछा, 'क्या एक स्थान पर दो वासुदेव हो सकते हैं ?' तब प्रभु ने द्रौपदी, कृष्ण और पद्मराजा का सर्ववृत्तांत कह सुनाया । तब कपिल ने कहा, 'हे नाथ! जंबूद्वीप के अर्द्ध भरतक्षेत्राधिपति कृष्ण वासुदेव का अन्यागत अतिथि की तरह मैं आतिथ्य करूँ ?' प्रभु बोले, 'जैसे एक स्थान पर दो तीर्थंकर और दो चक्रवर्ती मिलते नहीं है, वैसे ही दो वासुदेव भी कारणयोग से एक क्षेत्र में आने पर भी नहीं मिलते।' ऐसे अर्हत् के वचन सुने । तो भी कपिल वासुदेव कृष्ण को देखने में उत्सुक होने पर, उसके रथ के चाले - चीले चलकर समुद्र तट के ऊपर आए। वहाँ समुद्र के बीच में हाकर जाते कृष्ण तथा पांडवों के रूपा और सुवर्ण के पात्र जैसा श्वेत और पीले रथ की ध्वजा उन्हें दिखाई दी । तब मैं कपिल वासुदेव तुमको देखने के लिए उत्कंठित होकर समुद्र किनारे आया हूँ, अतः वापिस आओ। ऐसा स्पष्ट अक्षर समझ में आवे वैसा उसने शंखनाद किया। इसके उत्तर में हम बहुत दूर निकल गये हैं, इसलिए अब कुछ कहना उचित नहीं, ऐसे स्पष्ट अक्षर की ध्वनि वाला शंख कृष्ण उसके जवाब में फूँका। उस शंख की ध्वनि को सुनकर कपिल वासुदेव वापिस लौट आए और अमरकंका पुरी में आकर ‘यह क्या किया? इस प्रकार पद्मराजा को पूछा । तब उसने अपने अपराध की बात कहकर फिर बताया कि, हे प्रभु! आप जैसे स्वामी के होने पर भी भरतक्षेत्र के वासुदेव कृष्ण ने मेरा पराभव किया।' तब कपिल वासुदेव ने कहा कि- 'अरे असामान्य विग्रह वाले दुरात्मा । तेरा यह कृत्य तो सहन करने योग्य नहीं है।' ऐसा कहकर उसे राज्य से भ्रष्ट किया, और उसके पुत्र को राज्य पर बिठाया । (गा. 64 से 76 ) इधर कृष्ण समुद्र पार करके पांडवों से बोले - हे पांडवों ! जब तक मैं सुस्थित देव से आज्ञा लूँ, तब तक तुम गंगा उतर जाओ तब वे नाव में बैठकर साढ़े बासठ योजन वाले गंगा के भयंकर प्रवाह को पार करके परस्पर कहने लगे कि ‘यहाँ अपनी नाव खड़ी करके कृष्ण का बल देखें कि कृष्ण नाव के बिना इस गंगा के प्रवाह को कैसे पार करते हैं ? ऐसा संकेत करके वे नदी व तट पर छिप गये । कृष्ण कार्य साधकर कृत कृत्य होकर गंगा के किनारे आए। त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 272
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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