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उसे नहीं किया कहता है और राज्यादि मिथ्या अपवाद देकर स्वेच्छा से बकता रहता है। मूढबुद्धि वाला शराबी वध बंध आदि का भय छोड़कर घर, बाहर या मार्ग में जहाँ भी मिलता हो वहाँ दूसरों के द्रव्य को झपट लेता है। मद्यपान करने से उन्माद से परवश हुआ पुरुष बालिका, वृद्धा, युवती, ब्राह्मणी या चांडाली सर्व जाति की परस्त्री को भी उन्मत्त होकर भोगता है। शराबी मनुष्य रोता, गाता, लोटता, दौड़ता, कोप करता, तुष्ट होता, हँसता, स्तब्ध रहता, नमता, घूमता रहता और खड़ा रहता, इस प्रकार अनेक क्रिया करता हुआ पशुनर की तरह भटकता रहता है। हमेशा जंतुओं के समूह का ग्रास करने पर भी यमराज जैसे तुष्ट नहीं होता वैसे मधुपायी बारम्बार मधुपान करने पर भी थकता नहीं है। सर्व दोषों का कारण मद्य है और सर्व प्रकार की आपत्ति का कारण भी मद्य है, इससे अपथ्य का रोगी उसका त्याग करता है, वैसे मनुष्य को भी उसका त्याग करना चाहिये।
(गा. 307 से 322) जो प्राणियों के प्राण का अपहार करके मांस खाना चाहता है, वह धर्मरूप वृक्ष के दया नाम के मूल का उन्मूलन करता है। जो मनुष्य हमेशा मांस का भोजन करके भी दया पालना चाहता है, वह प्रज्वलित अग्नि में लता को आरोपित करना चाहता है। मांस भक्षण करने में क्षुब्ध मनुष्य की बुद्धि दुर्बुद्धि वाली डाकण की तरह प्रत्येक प्राणी का हनन करने में प्रवृत्त रहती है। जो दिव्य भोजन करने पर भी मांसाहार करता है, वह अमृत रस को छोड़कर हलाहल विष को खाता है। जो नरक रूप अग्नि में ईंधन जैसे अपने मांस से दूसरे के मांस का पोषण करना चाहता है, उसके जैसा दूसरा कोई निर्दय नहीं है। शुक्र और शोणित से उत्पन्न हुआ और विष्ठारस से बढ़ा हुआ और खून के द्वारा बना हुआ मांस कि जो नरक का फल रूप है, उसका कौन बुद्धिमान् पुरुष भक्षण करे?
(गा. 323 से 333) अंतर्मुहूर्त के पश्चात् जिसमें अनेक अति सूक्ष्म जंतु उत्पन्न हो जाते हैं, ऐसे मक्खन को विवेकी पुरुष को कभी खाना नहीं चाहिये। एक जीव की हिंसा में कितना पाप लगता है, तो फिर अनेक जंतुमय मक्खन का सेवन कौन करे?
(गा. 334 से 335)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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