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________________ कर्म का क्षय करने में उद्यत हुए नेमिनाथ जी निवृत्त होकर वहाँ से अन्यत्र विहार करने में प्रवृत्त हुए। (गा. 2 5 5 से 257) श्री नेमिनाथजी के दीक्षा ग्रहण करने के पश्चात् उनका अनुज बंधु रथनेमि राजीमति को देखकर कामातुर होकर इंद्रियों के वश हो गया। इससे वह हमेशा अपूर्व वस्तुएँ भेजकर राजीमति की सेवा करने लगा। उस भाव को नहीं जानने वाली इस मुग्धा ने उसका निषेध भी किया नहीं। राजीमति तो यह समझती कि यह रथनेमि बड़े भाई के स्नेह के कारण मेरी उपासना करता है और रथनेमि यह समझता था कि यह राजीमति का मुझ पर राग होने से मेरी सेवा स्वीकार कर रही है? तुच्छ बुद्धिवाला वह नित्य राजीमति के यहाँ जाता और भ्रातृजाया (भाभी) के बहाने से उसके साथ हास्य किया करता। एक बार एकान्त देखकर उसने राजीमति से कहा कि 'अरे मुग्धे! मैं तुमसे विवाह करने को तैयार हूँ, तू अपने यौवन को क्यों वृथा गवाँ रही है ? हे ममाक्षि! मेरा बंधु तो भोगों से अनभिज्ञ था, इससे उसने तेरा त्याग किया, तो इस प्रकार करके वह तो भोगसुखों से ठगाया है, परंतु अब तुम्हारी क्या गति ? हे कमल समान उत्तम वर्णवाली! तूने उसकी प्रार्थना की, तो भी वह तुम्हारा पति हुआ नहीं, और मैं तो तेरी प्रार्थना कर रहा हूँ, इससे देख, हम दोनों में कितना अंतर है ? इस प्रकार रथनेमि के वचन सुनकर उसके पूर्व के सर्व उपचारों का हेतु स्वभाव से ही सरल आशयवाली राजीमति को ख्याल में आया। तब इस धर्मज्ञ बाला ने धर्म का स्वरूप कहकर उसे बहुत बोध दिया, तथापि यह दुर्भति उस दुष्ट अध्यवसाय से विराम नहीं पा सका। (गा. 258 से 266) एक बार उसको समझाने के लिए सद्बुद्धिवान् राजीमति ने कंठ तक दूध का पान किया, और जब रथनेमि आया, तब वमन कराने वाला मदनफल खाया तब रथनेमि को कहा कि “एक सुवर्ण का थाल ला।' शीघ्र ही वह सुवर्ण का थाल ले आया, तब उसमें उसने पान किया हुआ सब दूध का वमन कर डाला। तब रथनेमि को कहा कि 'तुम इस दूध का पान कर लो।' रथनेमि बोला- 'क्या मैं श्वान की तरह वमन किए हुए का पान करने वाला हूँ ?' तब राजीमति बोली- ‘क्या यह पीने योग्य नहीं है, ऐसा तुम मानते हो?' रथनेमि त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 259
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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