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जाएगा। हे सुभ्र! तुम नेमिनाथ को तो संकल्प से ही दी गई थी। इसलिए जब तक उन्होंने तुम्हारा पाणिग्रहण किया नहीं, तब तक तुम कन्यारूप ही हो।' ।
(गा. 210 से 229) सखियों के इस प्रकार के वचन सुनकर राजीमति क्रोधित होती हुई बोली- 'अरे सखियों! मेरे कुल को कलंक लगे वैसा और कुतरा के कुल के योग्य ऐसे वचन तुम कैसे बोल रही हो? तीन जगत में नेमिकुमार ही एक उत्कृष्ट है, उनके सदृश दूसरा कौन है ? और यदि उनके जैसा अन्य कोई हो तो वह भी किस काम का? कारण कि कन्यादान तो एक बार ही होता है। मैं मनवचन से इन नेमिकुमार का ही वरण कर चुकी हूँ और उन्होंने गुरुजनों के आग्रह से मुझे पत्नीरूप से स्वीकार भी कर लिया था इस उपरांत भी ये त्रैलोक्यश्रेष्ठ नेमिकुमार ने मुझे वरण नहीं किया, तो प्रकृति से ही अनर्थ के हेतु रूप ऐसे इन भोगों से मुझे भी क्या काम है ? मुझे इनकी कुछ जरूरत नहीं है। यद्यपि उन्होंने विवाह में तो मेरा कर से स्पर्श किया नहीं, तथापि व्रतदान में तो वे मेरा स्पर्श करेंगे। अर्थात् मेरे मस्तक पर वासक्षेप के द्वारा हस्तक्षेप अवश्य करेंगे।' इस प्रकार प्रतिज्ञा करके उग्रसेन की पुत्री राजीमति सखिजनों को निवार कर श्री नेमिकुमार का ध्यान करने में ही तत्पर होकर काल व्यतीत करने लगी।
(गा. 230 से 235) इधर श्री नेमिनाथ प्रतिदिन वर्षीदान देने लगे और समुद्रविजय आदि वेदना से बालक की भांति अहर्निश रूदन करने लगे। भगवान् नेमि ने राजमति की पूर्वोक्त प्रतिज्ञा लोगों के मुख से और त्रिविध ज्ञान के प्रभाव से जान ली, तथापि ये प्रभु तो ममतारहित रहे। प्रभु ने इस प्रकार निर्बाधरूप से एक वर्ष पर्यन्त दान दिया। पश्चात् शक्रादि देवनायकों ने आकर प्रभु का दीक्षा संबंधी अभिषेक किया और उत्तरकुरू नाम की रत्नमयी शिबिका में शिवाकुमार (नेमिकुमार) आरूढ़ हुए। तब सुर-असुर-मनुष्यों ने उस शिबिका को वहन किया। उस समय प्रभु के दोनों ओर शक्र और ईशानेन्द्र चामर लेकर चले। सनत्कुमारेन्द्र ने सिर पर छत्र धारण किया। महेन्द्र इंद्र उत्तम खड्ग लेकर चले। ब्रह्मेन्द्र ने दर्पण लिया, लांतक इंद्र ने पूर्ण कुंभ लिया, महाशुक्रेन्द्र ने स्वस्तिक लिया, सहस्रार इंद्र ने धनुष लिया, प्राणताधीश ने श्रीवत्स धारण किया,
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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