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नवम सर्ग
एक बार श्री नेमिकुमार ने अन्य राजकुमारों के साथ क्रीड़ा करते हुए घूमते-घूमते कृष्ण वासुदेव की आयुधशाला में निःशंक प्रवेश किया। वहाँ सूर्य के बिंब जैसा प्रकाशमान सुदर्शनचक्र, सर्पराज के शरीर जैसा भयंकर शाङ्ग धनुष्य, कौमूदकी गदा और खड्ग साथ ही वासुदेव के यश का कोश हो वैसा और युद्ध रूप नाटक का नंदीवाद्य जैसा पंचजन्य शंख आदि अद्भुद अस्त्रशस्त्र तथा उनको वाद्य दिखलाई दिये। अरिष्टनेमि ने कौतुक से शंख को लेने की इच्छा की, यह देखकर उस अस्त्रगृह के रक्षक चारुकृष्ण ने प्रणाम करके कहा कि, हे कुमार! यद्यपि आप कृष्ण वासुदेव के भ्राता हो, साथ ही बलवान् हो, तथापि इस शंख को लेने मात्र में भी आप समर्थ नहीं हो तो उस शंख को फूंकने में तो कहाँ से समर्थ होओगे? इस शंख को लेने में कृष्ण के अतिरिक्त दूसरा कोई समर्थ नहीं, इसलिए तुम इसे लेने का वृथा प्रयास मत करो। यह सुनकर प्रभु ने हंसकर सहजता में उस शंख को उठाया और अधर पर मानो दांत की ज्योत्सना गिरती हो वैसे शोभते हुए उस शंख को फूंक दिया। तत्काल द्वारकापुरी के किल्ले के साथ घर्षण करते समुद्र की ध्वनि जैसे उस नाद ने आकाश और धरती को भर दिया। प्रावी पर्वतों के शिखर और महल कंपायमान हुए। कृष्ण, बलराम और दसों दशार्ह क्षुब्ध श्रृंखला तोड़कर त्रास को प्राप्त हुए। घोड़े लगामों की परवाह न करके भाग गये। वज्र के निर्घोष जैसी उस ध्वनि को सुनकर नगरजन मूर्छित हो गये। और अस्त्रागार के रक्षक मृत की भांति गिर पड़े। इस प्रकार की सर्व स्थिति देखकर कृष्ण विचार करने लगे कि यह शंख किसने फूंका? क्या कोई चक्रवर्ती उत्पन्न हुआ है या इंद्र पृथ्वी पर आए हैं ? मैं जब मेरा शंख बजाता हूँ तब सामान्य राजाओं को क्षोभ होता है, परंतु इस शंख ध्वनि से तो मैं और बलराम भी क्षुभित हुए हैं। इस प्रकार कृष्ण चिन्तन कर ही रहे थे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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