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इधर एक ओर तो भूरिश्रवा और सत्यकि जरासंध और वासुदेव की जयलक्ष्मी की इच्छा से युद्ध कर रहे थे। वे दाँत लड़े वैसे लड़ते ऐरावत की तरह दिव्य और लोहमय अस्त्रों से युद्ध करते हुए त्रैलोक्य भी को भयंकर हो गये। बहुत समय तक युद्ध करते हुए क्षीण जलवाले मेघ की तरह वे दोनों ही क्षीणास्त्र हो गये। तो दोनों ही मुष्टामुष्टि आदि से कोई युद्ध करने लगे। दृढ़ रीति से गिरने और उछलने से धरती को कंपित करने लगे और भुजास्फोट के शब्दों से दिशाओं को भी फोड़ने लगे। अंत में सात्यकि ने भूरिश्रवा को घोड़े की तरह बांधकर उसका गला मोड़कर जानु से दबाकर मार डाला।
(गा. 356 से 366) इधर हिरण्यनाभ के धनुष को अनावृष्टि ने तोड़ डाला। तो उसने अनाधृष्टि पर बड़ी अर्गला का प्रहार किया। अनाधृष्टि ने उछलती अग्नि की चिनगारियों से दिशाओं में प्रकाश करती उस अर्गला को आते ही बाण से छेद डाला। तब हिरण्यनाभ अनाधृष्टि का नाश करने के लिए रथ में से उतर कर हाथ में ढाल
और तलवार लेकर पैदल चलता हुआ उसके सामने दौड़ा। उस वक्त कृष्ण के अग्रज राम रथ में से उतर कर ढाल तलवार लेकर उनके सामने आये। और विचित्र प्रकार की वक्र गति से चलकर उसे बहुत समय तक घुमा घुमाकर थका दिया। फिर चालाक अनाधृष्टि ने छल से ब्रह्मसूत्र से काष्ठ की तरह खड्ग से हिरण्यनाभ के शरीर को काट डाला। हिरण्यनाभ मारा गया, तब उसके योद्धा जरासंध के शरण में गये। उस समय सूर्य भी पश्चिम सागर में मग्न हो गया। यादवों और पांडवों से पूजित अनाधृष्टि कृष्ण के पास आया। कृष्ण की आज्ञा से सर्व वीर अपनी अपनी छावनी में चले गये। इधर जरासंध ने विचार करके तुरंत ही सेनापति पद पर महाबलवान् शिशुपाल का अभिषेक किया।
(गा. 367 से 373) प्रातः यादव कृष्ण की आज्ञा से गरूडव्यूह की रचना करके पूर्ववत् समरभूमि में आ गये। जरासंध के पूछने पर हंसक मंत्री शत्रुओं के सैनिकों को अंगुली से बताकर नाम ले लेकर पहचान कराने लगा ‘यह काले अश्ववाला रथ और ध्वजा में गजेन्द्र के चिह्नवाला अनाधृष्टि है, यह नीलवर्णी अश्व के रथ वाला पांडुपुत्र युधिष्ठिर है, यह श्वेत अश्व के रथवाला अर्जुन है, नीलकमल जैसा वर्णवाला अश्ववाला यह वृकोदर (भीमसेन) है, यह सुवर्णवर्णी अश्व
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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