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________________ पृथ्वी पर राज्य कर रहा है। उसे देखकर जरासंध ने रोने का कारण पूछा, तब उसने अंजलिजोड़ कर कृष्ण का सर्व वृत्तांत बताया और कहा कि 'पिताजी! मुझे आज ही आज्ञा दो, तो मैं अग्नि में प्रवेश करके मेरी प्रतिज्ञा पूर्ण करूँगी। अब मैं जीवित नहीं रहूँगी। जरासंध बोला हे पुत्री ! तू रूदन मत कर, मैं इस कंस के शत्रु कृष्ण की माताओं, बहनों और सखियों को रूलाऊँगा। __ (गा. 134 से 144) अब यह पृथ्वी यादव विहीन हो ऐसा कह कर मंत्रियों के रोकने पर भी जरासंध ने प्रयाण करने के लिए सेना को आज्ञा दी। महापराक्रमी सहदेव आदि पुत्रों और पराक्रमियों में अगुणी चेदी देश का राजा शिशुपाल उसके साथ तैयार हुए। महापराक्रमी राजा हिरण्यनाम, संग्राम में धुरंधर और कौरव्य ऐसा दुर्योधन और अन्य बहुत से राजा तथा हजारों सामंत प्रवाह जैसे सागर में मिले वैसे जरासंध को आकर मिले। जिस समय जरासंध ने प्रयाण किया उस समय उसके मस्तक पर से मुकुट गिर पड़ा, उरःस्थल से हार टूट गया, वस्त्र के पल्ले में वैर अटक गया, उसके आगे छींक हुई, बांया नेत्र फड़कने लगा, उसके हाथी ने समकाल में मूत्र और विष्ठा की, प्रतिकूल पवन चलने लगा और आकाश में गिद्द पक्षिगण उड़ने लगे, इस प्रकार आप्तजनों की तरह खराब अपशकुनों और निमित्तों ने उसे अशुभ परिणाम बता दिया, फिर भी वह जरा भी रूका नहीं। सैन्य से उड़ती रज की तरह सैन्य के कोलाहल से दिशाओं को पूरता और दिग्गजों की तरह उद्भ्रांत रूप से पृथ्वी को कंपित करता हुआ क्रूर प्रतिज्ञावाला जरासंध गजपर आरूढ़ होकर विपुल सैन्य के साथ पश्चिम दिशा की ओर चल दिया। (गा. 145 से 153) जरासंध को आता जानकर कलिकौतुकी नारद और अन्य जानने वालों ने शीघ्र ही आकर कृष्ण को समाचार दिये। उसे सुनते ही अग्नि के समान तेजस्वी कृष्ण भी भीषण नादपूर्वक सुघोषा घंटा के नाद से सौधर्म देवलोक के देवता मिलते हैं, उसी प्रकार उस घंटे के नाद से सर्व यादवों और राजागणों को एकत्रित किया। इतने में समुद्र के जैसे दुर्धर समुद्र विजय सर्व प्रकार की तैयार करके आये। उनके साथ उनके महानेमि, सत्यनेमि, दृढ़नेमि, सुनेमि, अरिष्टनेमि, भगवान्, जयसेन, महाजय, तेजसेन, जय, मेघ, चित्रक, गौतम, श्वफल्क, त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 219
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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