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नहीं जानती जैसी स्वामिनी हो, वैसा ही उनका परिवार होता है। भ्रमित हुई सत्यभामा ने अनेक नापितों को रूक्मिणी के घर भेजा। तब उस साधु ने उनके शरीर पर से जैसे त्वचा छेदी जाय वैसे विद्या द्वारा मुंडित करके निकाल दिया। उन नापितों को भी मुंडित देखकर सत्यभामा ने क्रोध से कृष्ण के पास आकर कहा स्वामिन्! आप रूक्मिणी के केश दिलाने में जमानत देने वाले हो।
(गा. 472 से 474) इसलिए उसके अनुसार मुझे आज उसके केश दिलाओ। इस कार्य के लिए आप स्वंय जाकर रूक्मिणी के मस्तक का मुंडन कराओ। हरि हंसते हंसते बोले तुम मुण्डित तो हो गई हो। सत्यभामा बोली- अभी हंसी मजाक छोड़ दो और उसके केश मुझे आज ही दिलाओ। तब कृष्ण ने उस कार्य के लिए बलभद्र को सत्यभामा के साथ रूक्मिणी के घर भेजा। वहाँ प्रद्युम्न ने विद्या से कृष्ण के रूप की विकुर्वण की तब उनको वहाँ देखकर शर्म लज्जित होकर वापिस लौटे। पूर्व स्थानक पर आते ही कृष्ण को वहाँ भी देखकर वे बोले कि तुम मेरा उपहास क्यों कर रहे हो? तुमने मुझे केश के लिए वहाँ भेजा फिर तुम भी वहाँ आ गये
और वापिस यहाँ आ गये। इससे तुमने सत्यभामा को और मुझको दोनों को एक ही समय में लज्जित कर दिया। कृष्ण ने सौंगन्ध खाकर कहा कि मैं वहाँ आया ही नहीं था। ऐसा कहने पर भी यह सब तुम्हारी ही माया है, ऐसा बोलती हुई सत्यभामा क्रोधित होती हुई अपने महल में चली गई। फिर उसको मनाने के लिए हरि उसके घर गए।
(गा. 475 से 481) इतने में नारद ने रुक्मिणी के पास आकर कहा कि 'यह तुम्हारा पुत्र प्रद्युम्न है।' इसलिए तत्क्षण माता के चिरकाल के वियोग दुःख रूप अंधकार को टालने हेतु सूर्य के समान प्रद्युम्न ने अपना देव जैसा रूप प्रकट करके चरणों में नमन किया। रूक्मिणी के स्तनों में से दूध की धारा बह चली। उसने भी पुत्र का आलिंगन किया। आँख में अश्रु लाकर वह बारम् पुत्र के मस्तक पर चुंबन करने लगी। तब प्रद्युम्न ने माता को कहा 'माता! मैं मेरे पिता को आश्चर्य में डालूँ, तब तक तुम मुझे बताना नहीं।' हर्ष में व्यग्न हुई रूक्मिणी कुछ भी बोल न सकी। पश्चात् प्रद्युम्न रूक्मिणी को एक मायारथ में बिठाकर ले चला, और शंख फूंककर लोगों को बताया कि, मैं इस रूक्मिणी का हरण कर रहा हूँ। यदि कृष्ण
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त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)