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इधर जीवयशा खुले केश से रूदन करती हुई मानो मूर्तिमान लक्ष्मी हो वैसी जरासंध की सभा में आई । जरासंध ने रूदन का कारण पूछा। तब उसने बहुत प्रयास से मुनि अतिमुक्त का वृत्तांत और कंस के घात तक की सर्व कथा कह सुनाई। यह सुनकर जरासंध बोला कंस ने पहले देवकी को मारा नहीं, यह अच्छा नहीं किया। यदि पहले ही उसे मार दिया होता तो क्षेत्र के बिना खेती किस प्रकार से होती ? हे वत्से ! अब तू रूदन मत कर । मैं मूल से कंस के सर्व घातकों के सपरिवार मार डाल कर उनकी स्त्रियों को रूलाऊँगा । इस प्रकार जीवयशा को शांत करके जरासंध ने सोमक नाम के राजा को सर्व हकीकत समझा कर समुद्रविजय के पास भेजा । वह शीघ्र ही मथुरापुरी आया और उसने राजा समुद्रविजय को कहा आपके स्वामी जरासंध तुमको ऐसी आज्ञा करते हैं कि हमारी पुत्री जीवयशा और उसके स्नेह के कारण उसके पति कंस दोनों हमको प्राणों से भी प्यारे हैं। यह सर्वविदित है तुम हमारे सेवक हो, तो सुख से रहो परंतु उस कंस का द्रोह करने वाले राम कृष्ण को हमको सौंप दो और फिर यह देवी का सातवाँ गर्भ है जो तुमको अर्पण तो किया हुआ ही है । फिर भी तुमने उसे गोपन रखने का जो अपराध किया है, इससे पुनः हमको सौंप दो ।
(गा. 335 से 343)
सोमक के इन वचनों को सुनकर समुद्रविजय ने उनको कहा सरल मन वाले वसुदेव ने मुझ से परोक्ष रूप में छः गर्भ कंस को अर्पण किये वह भी उचित नहीं किया और राम तथा कृष्ण ने अपने भातृवध के वैर से कंस को मारा तो इसमें उनका क्या अपराध है ? हमारा यह एक दोष है कि यह वसुदेव बाल्यवय से ही स्वेच्छाचारी है इससे उसकी अपनी बुद्धि से प्रवृति करने से मेरे छः पुत्र
गये। ये राम और कृष्ण तो मुझे प्राणों से भी प्यारे हैं, और उनको मारने की इच्छा से तेरे स्वामी ने मांग की है, यह उनका एकदम अविचारीपन सूचित करता है। तब सोमक राजा ने कुपित होकर कहा अपने स्वामी की आज्ञा में सेवकों को युक्तायुक्त का विचार करना योग्य नहीं है । हे राजन् ! जहाँ तुम्हारे छः गर्भ गये हैं, वहाँ ये दोनों दुर्मति राम और कृष्ण भी जायेंगे । उनको रखने के विचार से तक्षक नाग के मस्तक पर खुजली किसलिए करते हो ? बलवान के साथ विरोध करना यह कुशलता नहीं होती ।
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(गा. 344 से 351)
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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