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देवी की तरह सुख को देने वाले और प्रत्येक अंग में लावण्य और सौभाग्य के उत्कर्ष देने वाले गूढ गर्भ को शिवादेवी ने धारण किया ।
(गा. 170 से 178)
अनुक्रम से गर्भस्थिति पूर्ण होने पर श्रावण मास की शुक्ल पंचमी की रात्रि को चित्रा नक्षत्र में चंद्र योग आने पर कृष्ण वर्ण वाले और शंख के लंछन वाले पुत्र को शिवादेवी ने जन्म दिया। उस समय छप्पन दिग्कुमारियों ने अपने अपने स्थान से वहाँ आकर शिवादेवी और जिनेंद्र का प्रसूतिकर्म किया । शक्रेन्द्र ने वहाँ आकर पाँच रूप किये, जिसमें एक रूप द्वारा प्रभु को हाथ में ग्रहण किया, दो रूप द्वारा चँवर ढुलाए, वाजित्र बजाने लगे एक रूप से मस्तक पर उज्जवल छत्र धारण किया और एक रूप हाथ में वज्र लेकर नर्तक की भांति प्रभु के आगे नाचते नाचते चले। इस प्रकार मेरूपर्वत के शिखर पर अतिपांडूकबला नाम की शिला के पास आए। वह शिला ऊपर के अति उच्च सिंहासन पर भंगवत को गोद में लेकर शकेंद्र बैठे। उस वक्त अच्युतादि त्रेसठ इंद्र भी तत्काल ही वहाँ आए और उनको उन्होंने श्री जिनेंद्र का भक्तिपूर्वक अभिषेक किया । पश्चात ईशानेंद्र के उत्संग में प्रभु को अपर्ण करके शकेंद्र ने विधिपूर्वक स्नान कराया। और कुसुमादिक से पूजा कर आरती उतारी नमस्कार करके अंजलि जोड़कर भक्ति से निर्झर वाणी द्वारा इंद्र ने इस प्रकार स्तुति करना प्रारंभ किया ।
(गा. 179 से 186)
हे मोक्षगामी और शिवादेवी की कुक्षि रूप शुक्ति में मुक्तामणि सदृश प्रभो! आप कल्याण के एक स्थान रूप और कल्याण को करने वाले हो । जिनके समीप में ही मोक्ष रहा हुआ है ऐसे समस्त वस्तुएँ जिनको प्रकट हुई है ऐसे और विविध प्रकार की ऋद्धि के निधान रूप श्री बावीसवें तीर्थंकर प्रभु! आपको नमस्कार हो । आप चरम देहधारी जगदगुरू हैं आपके जन्म से हरिवंश और इस भरत क्षेत्र की भूमि भी पवित्र हो गई है । हे जगदगुरू ! आपकी कृपा एक आधार है, ब्रहमस्वरूप के एक स्थान हो और ऐश्वर्य के अद्वितीय आश्रय हो । हे जगत्पति! आपके दर्शन करके ही अतिमहिमा द्वारा प्राणियों के मोह का विध्वंस हो जाने से आपका देशनाकर्म सिद्ध हो जाता है । हरिवंश में अपूर्व मुक्ताफल समान हे प्रभो! आपके कारण बिना वत्सल और निमित्त बिना भर्ता हैं । अभी अपराजित विमान की अपेक्षा भी भरतक्षेत्र उतम है, क्योंकि उसमें लोगों को
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित ( अष्टम पर्व )
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