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________________ हुए। उस समय दधिमुख नामक खेचरपति स्वंय सारथी होकर रथ लाए और उसमें रण करने में उद्यत ऐसा वसुदेव ने उनको बिठाया। __ (गा. 17 से 26) रण में दुर्धर वसुदेव को वेगवती की माता अंगारवती ने जो धनुषादि शस्त्र दिये। वे उन्होंने ग्रहण किये। जरासंध के राजाओं ने रूधिर राजा के सैन्य को नाश कर दिया इसलिए वसुदेव ने दधिमुख को प्रेरित करके रथ के घोड़ों को आगे बढाया। वसुदवे ने पहले उठे हुए शत्रुजय राजा को जीत लिया दंतवक्र को भग्न कर दिया और शल्य राजा को भगा दिया उस समय समुद्रविजय राजा ने कहा यह कोई सामान्य वाजित्र नहीं हो सकता। अन्य राजाओं से भी जीतना असाध्य है। अतः तुम ही तत्पर होकर इसे मार डालो। इसे मारोगे तो राजकन्या रोहिणी तुम्हारी ही है। अतः सब राजाओं को विजय करके जो खिन्न हो गये उनकी खिन्नता दूर करो। समुद्रविजय बोले हे राजन! मुझे परस्त्री नहीं चाहिये, परंतु आपकी आज्ञा से इस बलवान नर के साथ मैं युद्ध करूँगा। इस प्रकार कहकर राजा समुद्रविजय ने भाई के साथ युद्ध प्रारंभ किया। उन दोनों का चिरकाल तक विश्व को आश्चर्यकारी शस्त्राशास्त्र से युद्ध चला। तब वसुदेव ने एक अक्षर सहित बाण फेंका। समुद्रविजय ने उस बाण को लेकर उस पर लिखे अक्षरों को इस प्रकार पढा कि छल कपट से निकल कर गया हुआ तुम्हारा बंधु वसुदेव तुमको नमस्कार करता है। इन अक्षरों को पढते ही समुद्रविजय हर्षित हुए और सांयकाल के समय बछड़े को मिलने को उत्सुक गाय के समान वत्स वत्स ऐसे कहते हुए रथ में से उतरकर उनके चरण में गिरे। समुद्रविजय उसे उठा कर दोनों हाथों से आलिंगन करके मिले। (गा. 27 से 37) ज्येष्ठ बंधु ने पूछा कि हे वत्स! आज सौ वर्ष हुए तू कहां गया था? तब वसुदेव ने शुरू से लेकर सर्व वृत्तांत उनको कह सुनाया। ऐसे पराक्रमी बंधु से समुद्रविजय को जितना हर्ष हुआ उतना ही तब ऐसा जवाई मिलने से रूधिर राजा को भी हर्ष हुआ। जरासंध ने उसे अपने सामंत का बंधु जाना तो उसका भी कोप शांत हो गया। कारण कि अपने जन को गुणाधिक जानकर सर्व को हर्ष होता है। तब उस प्रसंग पर उपस्थित राजाओं और स्वजनों ने मिलकर शुभ दिन में उत्सव के साथ वसुदेव और रोहिणी का विवाहोत्सव किया। रूधिर राजा से त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 147
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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