SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 154
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ एक बार निषेध राजा जो स्वर्ग में देवता हुए थे, उन्होंने आकर विषयसागर में निमग्न हुए मगरमच्छ जैसे नलराजा को इस प्रकार प्रतिबोध दिया कि रे वत्स! इस संसार रूप अरण्य में तेरे विवेक रूप धन को विषय रूपी चोर लूट रहे हैं, तथापि तू पुरूष होकर क्यों उनका रक्षण नहीं करता? मैंने पूर्व में तुझे दीक्षा का समय बताने का कहा था तो अब समय आ गया है। अतः आयुष्य रूप वृक्ष के फलस्वरूप दीक्षा ग्रहण कर ऐसा कहकर निषध देव अन्तर्ध्यान हो गये। (गा. 1061 से 1065) उस समय जिनसेन नाम के एक अवधिज्ञानी सूरी वहाँ पधारे। दवदंती और नल ने उनके समीप जाकर उनकी आदर से वंदना की। फिर उन्होंने अपना पूर्वभव पूछा। तब वह कहकर मुनि बोले कि पूर्व में तुमने मुनि को क्षीरदान दिया था, फलस्वरूप तुमको यह राज्य प्राप्त हुआ। उस समय मुनि पर तुमने बारह घड़ी तक क्रोध किया, जिससे इस भव में बाहर वर्ष का वियोग रहा है। यह सुनकर पुष्कर नाम के अपने पुत्र को राज्य देकर नल और दवदंती ने मुनिभगवंत के पास व्रत ग्रहण किया। वह चिरकाल तक पाला। नल को विषयवासना उत्पन्न हुई, इससे उनको दवदंती को भोगने का मन हुआ। यह बात जानकर आचार्य ने उनका त्याग किया। तब उनके पिता निषध देव ने आकर उनको प्रतिबोध दिया। तब व्रत पालने में अशक्त नल ने अनशन ग्रहण किया। यह बात सुनकर नल पर अनुरक्त दवदंती ने भी अनशन व्रत लिया। (गा. 1066 से 1071) इस प्रकार कथा कहकर कुबेर वसुदेव को कहते है वसुदेव! वह नल मरकर मैं कुबेर हुआ हूँ और दवदंती मृत्यु के पश्चात मेरी प्रिया हुई थी। वह वहाँ से च्यवकर यह कनकवती हुई है। उस पर पूर्वभव के पत्नीपन के स्नेह से अतिशय मोहित होकर मैं यहाँ आया हूँ, क्योंकि स्नेह सैंकडों जन्म तक चलता है। हे दर्शाह वसुदेव! इस भव में यह कनकवती सर्वकर्म का उन्मूलन करके निर्वाण को प्राप्त करेगी। पूर्व में इंद्र के साथ में महाविदेह क्षेत्र में तीर्थकर प्रभु को वंदना करने गया था, वहाँ विमलस्वामी वे अहंत ने मुझे यह वृत्तांत बताया था। (गा. 1072 से 1075) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 143
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy