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________________ अपना वस्त्र डाला। उस वस्त्र का किनारा पृथ्वी को छू गया। तब वाला द्वारा उर्मिका चींटी के जैसे उस सर्प ने अपने शरीर से उस वस्त्र को लपेट लिया। तब सर्प से वेठित हुए उस उत्तरीय वस्त्र को कुएं में से रज्जु की तरह कृपालु राजा ने उत्कर्ष के साथ खींच लिया। वहाँ से आगे चलकर उखर भूमि पर जहाँ अग्नि लगे नहीं, वहाँ उस सर्प को रखने की इच्छा करते समय उस सर्प ने राजा नल के हाथ पर डंक मारा। तब पसीने की बिंदु की जैसे उस नाग ने भूमि पर आच्छोटन पूर्वक फेंकते रखते हुए नल ने कहा- हे भद्र! तूने कृतज्ञ होकर यह अच्छा प्रत्युपकार किया। मैं तेरा उपकारी हूं। उसको वापिस ऐसा ही बदला मिलना चाहिए। परंतु यह तो तेरी जाति का ही गुण है कि जो तुझको दूध पिलाता है उसको ही तुम काटते हो। इस प्रकार नल राजा कह ही रहे थे कि उनके शरीर में विष पसरने लगा। इससे उनका पूरा शरीर अधिज्य किए धनुष की जैसे कुबडा हो गया। उस समय नलराजा के केश प्रेत की तरह पीले हो गये। उंट के जैसे होठ लंबे हो गये और रंक की जैसे हाथ पैर दुबले और उदर स्थूल हो गया। सर्प के विष से ग्रसित नल के क्षण भर में नट की तरह सर्व अंग विभत्स और विकृत आकृति वाले हो गये। इससे उसने सोचा कि ऐसे रूप से मेरा जीना वृथा है अतः परलोक में उपकारी ऐसी दीक्षा ग्रहण करूँ। ___नल इस प्रकार चिंतन कर रहे थे कि इतने में उस सर्प ने सर्प का रूप छोडकर दिव्य अलंकार और वस्त्र को धारण करने वाला तेजस्वी देव रूप प्रकट किया। तब वह बोला हे वत्स! तू खेद मत कर। मैं तेरा पिता निषध हूँ। मैंने तुझे राज्य देकर दीक्षा ली थी। दीक्षा के परिणामस्वरूप मैं ब्रहमदेवलोक में देवता हुआ हूँ। वहाँ अवधिज्ञान द्वारा मैंने तुझे ऐसी दीक्षा को प्राप्त हुआ देखा। (गा. 894 से 897) तब माया से सर्परूप होकर दुर्दशा में पड़े तेरे अंगों को जैसे बड़े फोड़े के उपर फफोला हो, वैसे मैंने ऐसी विरूपता की है पंरतु मेरी की हुई यह विरूपता कड़वे औषध के पान के जैसे तेरे उपकार के लिए ही है, ऐसा मानना। कारण कि तूने पहले जिन राजाओं को जीत कर दास बनाया है, वे सब तेरे शत्रु बने हुए हैं, वे तेरे इस विरूपने से तुझे पहचानेंगे नहीं, अतः कुछ भी उपद्रव करेंगे नहीं। अभी दीक्षा लेने का मनोरथ भी करना नहीं, कारण कि यद्यपि तुझे इतनी ही भूमि चिरकाल तक भोगनी है। जब तेरा दीक्षा का समय आएगा, तब उत्तम 132 त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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