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________________ उसने अपने पास ही क्यों नहीं रखा ऐसी सती प्रिया को छोड देना यह क्या तेरे कुल को शोभा देता है ? हे वत्से! मैं तेरे दुख को ग्रहण करती हूँ इससे तू दुख को त्याग दे। और मैंने तुझे पहचाना नहीं अतः तू मेरा अपराध क्षमा कर। फिर बोले! अंधकार रूप सर्प में गरूड रूप और कृष्ण पक्ष की रात्रि में भी प्रकाशित ऐसा जो तिलक तेरे जन्म से ही ललाट में सहज उत्पन्न हुआ था वह कहाँ गया? ऐसा कह अपने मुखकमल में से थूक का रस लेकर उसके द्वारा वैदर्भी के ललाट का उसने मार्जन किया और बारंबार उसके मस्तक को सूंघने लगी। (गा. 836 से 841) उस समय तत्काल अग्नि में से तपा कर निकाले स्वर्ण पिंड की तरह और मेघ में से मुक्त हुए सूर्य की तरह उसका ललाट चमकने लगा। तब चंद्रयशा ने दवदंती को देवता की प्रतिमा की भांति गंधोदक से अपने हाथ से नहलाया। और मानो ज्योत्सना के रसमय हो, ऐसे दो उज्जवल और सूक्ष्म वस्त्र उसको दिये, जो कि उसने धारण किये। तब हर्षरूपी जल की तलैया जैसी चंद्रयशा प्रीति युक्त वैदर्भी को लेकर राजा के पास आई। (गा. 842 से 845) उस समय सूर्य अस्त हो गया, काजल से भाजन भरे या सुई बिंधाई जाय ऐसे सघन अंधकार से आकाश भर गया। परंतु उस गाढ अंधकार को छड़ीदारों ने रोक रखा हो, वैसी वैदर्भी के तिलक तेज से वह राज्यसभा में घुस नहीं सका। राजा ने देवी से पूछा- इस समय सूर्य अस्त हो गया है और यहाँ पर दीपक या अग्नि भी नहीं है तो भी दिन जैसा प्रकाश कैसे हो रहा है? तब रानी ने ज्योतिरूप जल के बड़े द्रह जैसा और जन्म से ही सहज सिद्ध हुआ वैदर्भी का भालतिलक राजा को बतलाया। तब राजा ने कौतुक से तिलक का अपने हाथ से ढंक दिया, तब अंधकार से सभाग्रह गिरि गुफा जैसा हो गया। तब राजा ने हाथ उठाकर अत्यंत हर्ष को पाए हुए पिता रूप होकर दमयंती के राज्य भ्रंश आदि की कथा पूछी। दमयंती ने नीचा मुख करके रोते रोते नल कुबेर की द्यूत से लेकर सर्व कथा कह सुनाई। राजा ने अपने उतरीय वस्त्र से वैदर्भी के नेत्रों को पोंछकर बोला कि हे पुत्री! रूदन मत कर, क्योंकि विधि से कोई बलवान नहीं है। (गा. 846 से 853) त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व) 129
SR No.032100
Book TitleTrishashti Shalaka Purush Charit Part 06
Original Sutra AuthorN/A
AuthorSurekhashreeji Sadhvi
PublisherPrakrit Bharti Academy
Publication Year2014
Total Pages318
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size22 MB
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