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मेरे पति को राज्य से भ्रष्ट करके प्रवासी कर दिया और जो मैं वृक्ष से गिर पड़ी यानि मैं नल राजा से बिछुड़ गई यह समझना चाहिए । इस प्रश्न का विचार करने से तो लगता है कि अब मुझे अपने प्राणेश नल के दर्शन होना दुर्लभ है। इस प्रकार स्वप्न के अर्थ का विचार करके वह बुद्धिमती बाला सोचने लगी कि मेरा राज्य और पति दोनों ही गये । तब वह तारलोचना ललना मुक्तकंठे तीव्र स्वर रूदन करने लगी । दुर्दशा में पड़ी स्त्री को धैर्य गुण कहाँ से हो ? अरे नाथ! तुमने मुझे क्यों छोड़ दिया क्या मैं आपको भार रूप हो रही थी सर्प को अपनी कांचली कभी भाररूप नहीं लगती। यदि आप मजाक मश्करी करने किसी बेल के वन में छिप गये हो तो अब प्रकट हो जाओ। क्योंकि दीर्घ समय तक मश्करी सुखकर नहीं होती हे वनदेवताओं! मैं तुमसे प्रार्थना करती हूँ कि तुम मुझ पर प्रसन्न हो जाओ और मेरे प्राणेश को या उनका पवित्र किया हुआ मार्ग बताओ ।
(गा. 546 से 557 )
पृथ्वी! तू पके हुए ककड़ी के फूल की तरह दो भागों में बँट जा कि जिससे मैं तेरे दिये हुए विवर में प्रवेश करके सुखी हो जाउँ इस प्रकार विलाप पूर्वक रूदन करती वैदर्भी वर्षा की तरह अश्रुजल से अरण्य के वृक्षों का सिंचन करने लगी। जल या स्थल, धूप या छांव मानो ज्वलंत हो वैसे उस दवदंती को नलराजा बिना जरा भी सुख नहीं मिला ।
(गा. 558 से 561)
तब वह भीमसुता अटवी में घूमने लगी। इतनें में वस्त्र के किनारे पर लिखे हुए अक्षर दिखाई दिये । तब वह तत्काल हर्ष से पढने लगी । पढकर उसने सोचा कि अवश्य प्राणेश के हृदय पूर्ण सरोवर में मैं हंसली तुल्य हूँ, नहीं तो मुझे ऐसा आदेश रूप प्रसाद का निर्देश किसलिए करते पति देव का यह आदेश मैं गुरू के वचन से भी अधिक मान्य करती हूँ । इस आदेश के अनुसार बर्ताव करने से मेरा यह अति निर्मल होगा। अतः चलो मैं सुख के कारण रूप पिता के घर जाउँ, परंतु पति बिना स्त्रियों को पितृगृह भी पराभव का स्थान है । यद्यपि मैंने प्रथम पति के साथ जाना ही चाहा था, पर वह योग्य बना नहीं । अब पति की आज्ञा के वश
कर पितृगृह जाना ही उपयुक्त है । ऐसा विचार करके वैदर्भी उस बड़ के मार्ग पर चलने लगी। जैसे नलराजा उसके साथ हों, वैसे अक्षरों को देखती देखती उस मार्ग पर मार्ग में व्याघ्र मुख फाड़कर दवदंती को खाने के लिए उद्यमवंत हो रहे
त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित (अष्टम पर्व)
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